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७७. मयवक्खाणपव्चं दिट्ठा य कररुहेणं. नरवइणा अत्तणो कया भज्जा । पुप्फावइण्णनयरे, अच्छइ सोक्खं अणुहवन्ती ॥ ७५ ॥ अह अन्नया कयाई, लद्धपसायाएँ तीऍ सो राया । चलणेण उत्तिमङ्गे, पहओ रइकेलिसमयम्मि ॥ ७६ ॥ अस्थाणम्मि निविट्टो, पुच्छइ राया बहुस्सुए सबे । पाएण जो नरिन्द, हणइ सिरे तस्स को दण्डो ॥ ७७ ॥ तो पण्डिया पवुत्ता, नरवइ ! सो तस्स छिज्जए पाओ । हेमङ्कण निरुद्धा, विप्पेणं जपमाणा ते ॥ ७८ ॥ हेमको भणइ निवं, तस्स उ पायस्स कीरए पूया । भज्जाएँ वल्लभाए, तम्हा कोवं परिच्चयसु ॥ ७९ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, हेमको नरवईण तुटेणं । संपाविओ य रिद्धी, अणेगदाणाभिमाणेणं ॥ ८० ॥ तइया हेमंकपुरे, मित्तजसा नाम अच्छइ वराई । सा भग्गवस्स भज्जा, अमोहसरलद्ध विजयस्स ॥ ८१ ॥ अइदुक्खिया य विहवा, हेमकं पेच्छिऊण धणपुण्णं । सिरिवद्धियं सुयं सा, भणइ रुयन्ती मह सुणेहि ॥ ८२ ॥ ईसत्थागमकुसलो, तुज्झ पिया आसि भग्गवो नाम । धणरिद्धिसंपउत्तो, सबनरिन्दाण अइपुज्जो ॥ ८३ ॥ संथाविऊण जणणिं, वग्धपुरं सो कमेण संपत्तो । सबं कलागमगुणं, सिक्खइ गुरवस्स पासम्मि ॥ ८४ ॥ नाओ समत्तविजो, तत्थ पुरेसस्स सुन्दरा धूया । छिद्देण य अवहरिउं, वच्चइ सो निययघरहुत्तो ॥ ८५ ॥ सीहेन्दुनामधेओ, भाया कन्नाएँ तीऍ बलसहिओ । पुरओ अविट्टिऊणं, जुज्झइ सिरिवद्धिएण समं ॥ ८६ ।। सोहेन्दरायपत्तं. बलसहियं निजिणित्त एगागी । सिरिवद्धिओ कमेणं, गओ य जणणीऍ पासम्मिा विन्नाणलाघवेणं, तोसविओ तेण कररुहो राया । सिरिवद्धिएण लद्धं, रज्जं चिय पोयणे नयरे ॥ ८८ ॥ कालगयम्मि सुकन्ते, सीहेन्दू वेरिएण उच्छित्तो । निक्खमइ सुरङ्गाए, समयं घरिणीए भयभीओ ॥ ८९ ॥
एक्कोदराऍ सरणं, पोयणनयरम्मि होहती मज्झं । परिचिन्तिऊण वच्चइ, सिग्धं तम्बोलियसमग्गो ।। ९० ॥ (७४) कररुह राजाने उसे देखकर अपनी पत्नी बनाया। पुष्पावतीर्ण नगरमें सुख अनुभव करती हुई वह रहने लगी। (७५) एक दिन प्रसाद प्राप्त उस स्त्रीने रतिकेलिके समय राजाके मस्तक पर पैरसे प्रहार किया। (७६) सभामें स्थित राजाने सब विद्वानोंसे पूछा कि जो राजाके सिर पर पैरसे प्रहार करे उसके लिए कौनसा दण्ड है ? (७७) तब पण्डित कहने लगे कि, 'हे राजन् ! उसका वह पैर काट डालना चाहिए। इस तरह कहते हुए उन पण्डितोंको हेमांक नामक ब्राह्यणने रोका। (७३) हेमांकने राजासे कहा कि प्रिय भार्याके उस पैरकी तो पूजा करनी चाहिए। अतः ऋधका परित्याग करो। (७६) यह वचन सुनकर तुष्ट राजाने सम्मान पूर्वक अनेकविध दान देकर हेमांकको ऋद्धिसे सम्पन्न किया । (८०)
उस समय हेमन्तपुरमें मित्रयशा नामकी एक गरीब स्त्री रहती थी। वह भार्गव अमोघशरलव्धविजयकी भार्या थी। (८१) अतिदुःखित उस विधावाने हेमांकको धनसे पूर्ण देखकर रोते-रोते अपने पुत्र श्रीवधितसे कहा कि मेरा कहना सुन। (८२) भार्गव नामका तेरा पिता धनुष और अस्त्र विद्या में कुशल, धन और ऋद्धिसे युक्त तथा सब राजाओंका अतिपज्य था। (८३) माताको आश्वासन देकर बह चलता हुआ व्याघ्रपुरमें आ पहुँचा और गुरुक पास सब कलाएँ और आगम सीखने लगा। (८४) उस नगरमें विद्याभ्यास समाप्त करके और उसकी सुन्दरा नामकी लड़कीका किसी बहानेसे अपहरण करके वह अपने घरकी ओर जाने लगा। (८५) उस कन्याका सिंहेन्दु नामका एक भाई था। वह सेनाके साथ आगे
आकर श्रीवर्धनके साथ युद्ध करने लगा। (८६) एकाकी श्रीवर्धनने सैन्य सहित राजपुत्र सिंहेन्दुको पराजित किया। क्रमशः विचरण करता हुआ वह माताके पास आ पहुँचा। (८७) ज्ञानकी कुशलतासे उसने कररुह राजाको सन्तुष्ट किया। श्रीवर्धितने पोतनपुरमें राज्य प्राप्त किया। (८८)
सुकान्तके मरने पर शत्रुने सिंहेन्दुको पराजित किया। भयभीत वह पत्नी के साथ सुरंगके रास्तेसे बाहर निकला। (८) मैं पोतननगरमें अपनी बहनकी शरणमें जाऊँ-ऐसा सोचकर ताम्बूलिकके साथ वह शीघ्र चल पड़ा । (१०) चोरों
१. णिज्जिऊण---प्रत्य० । २. ओच्छन्ने-प्रत्य० ।
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