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४४२ पउमचरियं
[७८. ३तं भणइ वायसं सा, जइ मे पुत्तस्स तत्थ गन्तूणं । वत्तं आणेहि लहुं, देहामि य पायसं तुज्झ ॥ ३ ॥ एव भणिऊण तो सा, सुमरिय पुत्तस्स बहुगुणं चरियं । कुणइ पलावं कलुणं, मुञ्चन्ती असुजलनिवहं ॥ ४ ॥ हा वच्छ ! कत्थ देसे, कोमलकर-चरण ! कक्खडे पन्थे। परिसकसि सीया-ऽऽयव-दुहिओ घरिणीए समसहिओ ॥५॥ मोत्तण मन्दभग्गा, चिरकालं पुत्त ! पवसिओ सि तुमं । 'इअ दुहियं नियजणणिं, सुविणे वि ममं न संभरसि ॥६॥ एयाणि य अन्नाणि य, पलवन्ती जाव चिट्ठए देवी । ताव य गयणयलाओ, ओइण्णो नारओ सहसा ॥ ७ ॥ सेयम्बरपरिहाणो, दीहजडामउडधारिणो भयवं । पविसइ ससंभमाए, अब्भुटाणं कयं तीए ॥ ८ ॥ दिन्नासणोवविट्ठो, पेच्छइ अवराइयं पगलियंसुं । काऊण समुल्लावं, पुच्छइ किं दुम्मणा सि तुमं? ॥ ९ ॥ एव भणियाएँ तो सो, देवरिसी पुच्छिओ कहिं देसे । कालं गमिऊण इहं, समागओ? साहसु फुडं मे ॥१०॥ अह नारओ पवुत्तो, कल्लाणं आसि धायईसण्डे । पुबिल्ले सुररमणे, नयरे तित्थंकरो जाओ ॥ ११ ॥ सुर-असुरेहि नगवरे, कीरन्तो जिणवरस्स अभिसेओ । दिट्टो मए पमोओ, भावेण य वन्दिओ भयवं ॥ १२ ॥ निणदरिसणाइसत्तो, गमिउं तेवीस तत्थ वासाइं । जणणिं व भरहभूमि, सरिऊण इहाऽऽगओ अहयं ॥ १३ ॥ अह तं भणइ सुभणिया, महरिसि! निसुणेहि दुक्खसंभूई । नं पुच्छिया तुमे हं, तं ते साहेमि भूयत्थं ॥ १४ ॥ भामण्डलसंजोगे, पवइए दसरहे सह भडेहिं । रामो पियाएँ समयं, विणिग्गओ लक्खणसं मग्गो ॥ १५ ॥ सीयाएँ अवहियाए, जाओ सह कइबरेहि संजोगो । लङ्काहिवेण पहओ, सत्तीए लक्खणो समरे ॥ १६ ॥ लङ्कापुरि विसल्ला, नीया वि हु लक्खणस्स जीयत्थे । एयं ते परिकहियं, सब संखेवओ तुझं ॥ १७ ॥
तत्थऽच्छइ वइदेही, बन्दी अइदुक्खिया पइविहणा। सत्तिपहाराभिहओ, किं व मओ लक्खणकुमारो? ॥ १८ ॥ (२) उसने उस कौएसे कहा कि यदि तू वहाँ जाकर मेरे पुत्रका जल्दी ही समाचार लायगा तो मैं तुझे दूध दूंगी। (३) तब ऐसा कहकर और पुत्रके बहुत गुणवाले चरित्रका स्मरण करके अश्रुजल बहाती हुई वह करुण प्रलाप करने लगी। (४) हा वत्स! कोमल हाथों और पैरोंवाले तुम सर्दी और गरमीसे दुःखित हो पत्नीके साथ किस देशमें कर्कश मार्ग पर गमन करते हो ? (५) पुत्र! मन्द भाग्यवाली मेरा परित्याग करके चिर कालसे तुम प्रवासमें गये हो। अतः दुःखसे पीड़ित अपनी माताका स्वप्न में भी तुम स्मरण नहीं करते ? (६) जब वह देवी इस तरह प्रलाप कर रही थी तब आकाशमें से सहसा नारद नीचे आये (७) सफेद वस्त्र पहने हुए और बड़ी जटायोंका मुकुट धारण किये हुए भगवान नारदने प्रवेश किया। आदरके साथ वह उठ खड़ी हुई। (८) दिये गये आसन पर बैठे हुए नारदने आँसू बहाती हुई अपराजिताको देखा। सम्भापण करके उन्होंने पूछा कि तुम दुःखी क्यों हो ? (8) इस प्रकार कही गई उसने देवर्षि नारदसे पूछा कि किस देशमें समय बिताकर आप यहाँ आये हैं, यह स्कुट रूपसे आप मुझे कहें। (१०) तब नारदने कहा कि
धातकीखण्डके पूर्वमें आये हुए सुररमणनगरमें तीर्थकर उत्पन्न हुए हैं। उनका कल्याणक था। (११) पर्वत पर सुर-असुर द्वारा जिनवरका किया जानेवाला अभिपेक-उत्सव मैंने देखा और भावपूर्वक भगवान्को वन्दन किया। (१२) जिनदर्शन में अत्यन्त आसक्त मैं तेईस वर्ष वहाँ बिताकर जननीतुल्य भरतभूमिका स्मरण करके यहाँ आया हूँ। (१३) तव सुन्दर वचनवाली अपराजिताने उनसे कहा कि, हे महर्षि! मेरे दुःखकी उत्पत्तिके बारेमें आप सुनें। आपने मुझसे पूछा इसलिए मैं आपसे सच्ची हकीकत कहती हूँ। (१४) भामण्डल के साथ मिलन होनेके बाद और सुभटोंके साथ दशरथके प्रव्रजित होने पर लक्ष्मण और प्रिया के साथ राम बाहर निकल पड़े। सीताके अपहृत होने पर कपिवरोंके साथ उनका मिलन हुआ। युद्धमें लंकाधिपने शक्तिके द्वारा लक्ष्मणको आहत किया। लक्ष्मणके जीवनके लिए लंकापुरीमें से विशल्या ले जाई गई—यह सब संक्षेपमें मैंने आपसे कहा। (१५-७) वहाँ पतिसे रहित और अत्यन्त दुःखित सीता बन्दी होकर रही हुई है।
१. अइदुक्खदेहदुहियं सुविणे वि मए न-मु०। २. भवर्ण-प्रत्य० । ३. वरिसाई-प्रत्य० । ४. पव्वइओ दसरहो--प्रत्य० । ५. •समेओ-प्रत्य० ।
करके उन्होंने पूछा
, यह स्कुट रूप
नगरमें तीर्थकर
और भावपूर्वक भग
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