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७६. सीयासमागमपव्वं सा भणइ सामि ! एसो पुप्फइरी नाम पवओ रम्मो । तत्थऽच्छइ तुह घरिणी, पउमुज्जाणस्स मज्झम्मि ॥१०॥ अह सो कमेण पत्तो, रामो सीयाएँ सन्निवेसम्मि । ओइण्णो य गयाओ, पेच्छइ कन्ता मलिणदेहा ॥ ११ ॥ पयईए तणुयङ्गी, अहियं चिय विरहदूमियसरीरा । सीया दठूण पियं, अहोमुही लज्जिया रुयइ ॥ १२ ॥ अवहत्थिऊण सोयं, दइयस्स समागमे जणयधूया । हरिसवसपुलइयङ्गी, जाया चिय तक्खणं चेव ॥ १३ ॥ देवि व सुराहिवइं, रइमिव कुसुमाउहं घणसिणेहा । भरहं चेव सुभद्दा, तह अल्लीणा पई सीया ॥ १४ ॥ अवगृहिया खणेकं, रामेण ससंभमेण जणयसुया। निववियमाणसऽङ्गी, सित्ता इव चन्दणरसेणं ॥ १५ ।। दइयस्स कण्ठलग्गा, भुयपासे सुमणसा जणयधया । कप्पतरुसमासन्ना, कणयलया चेव तणुयङ्गी ॥ १६ ॥ दटूण रामदेवं, सीयासहियं नहट्टिया देवा । मुञ्चन्ति कुसुमवासं, गन्धोदयमिस्सियं सुरहिं ॥ १७॥ साहु त्ति साहु देवा, भणन्ति सीयाएँ निम्मलं सीलं । सुदढाणु बथधारी, मेरु ब अकम्पियं हिययं ॥ १८ ॥ लच्छीहरेण एत्तो, सीयाए चलणवन्दणं रइयं । तीए वि सो कुमारो, अवगूढो तिबनेहेणं ॥ १९ ॥ सा भणइ भद्द ! एयं, पुवं समणुत्तमेहि जं भणियं । तं तह सुयमणुभूयं, दि8 चिय पायर्ड अम्हे ॥ २० ॥ चकहरसिरीएँ तुमं, जाओ चिय भायणं पुहइणाहो । एसो वि तुज्झ जेट्टो, बलदेवत्तं समणुपत्तो ॥ २१ ॥ एकोयराय चलणे, पणमइ भामण्डलो जणियतोसो । सीयाए सुमणसाए, सो वि सिणेहेण अवगूढो ॥ २२ ॥ सुग्गीवो पवणसुओ, नलो य नीलो य अङ्गओ चेव । चन्दाभो य सुसेणो, विराहिओ नम्बवन्तो य ॥ २३ ॥ एए अन्ने य बहू, विज्जाहरपत्थिवा निययनाम । आभासिऊण सीयं, पणमन्ति नहाणुपुवीए ॥ २४ ॥ आभरणभूसणाई, वरसुरहिविलेवणाई विबिहाइं । आणन्ति य वत्थाई, कुसुमाइं चेव दिवाइं ॥ २५ ॥
कि, भद्रे ! मेरी पत्नी कहाँ है, यह मुझे तुम शीघ्र ही कहो । (६) उसने कहा कि, हे स्वामी ! यह पुष्प.ग.र नाम रम्यक पर्वत हैं। वहाँ पर पद्मोद्यानके वीच आपकी पत्नी है । (१०)
वे राम अनुक्रमसे गमन करते हुए सीताके सन्निवेशमें पहुँचे। हाथी परसे नीचे उतर कर उन्होंने मलिन शरीरवाली सीताको देखा । (११) प्रकृतिसे ही पतले शरीरवाली और उसपर विरहसे दुःखित देहवाली सीता प्रियको देखकर मुँह नीचा करके लज्जित हो रेने लगी। (१२) फिर प.ते का समागम होने पर शोकका परित्याग करके सीता तत्क्षण ही हपके श्रावेशमें पुलकित शर रवाली हो गई । (१३) इन्द्रके पास देवीकी भाँते, कामदेवके पास रतिकी भाँति और भरतके पास सुभद्राकी भाँति अत्यन्त स्लेयुक्त सीता पति के पास गई (२४) उत्कंठावश एक क्षगभरके लिए प्रालि.गत सीता मानों चन्दन-रससे सीक्त हुई हो इस तरह मन और शरीरसे शीतल हुई। (५) पतिके कण्ठसे लगी हुई और भुजपाशमें बद्ध तथा मनमें प्रसन्न तन्वंगी सीता कल्पवृक्षसे लगी हुई कनकलता-सी लगती थी। (१६) सीता सहित रामको देखकर आकाश में स्थित देवोंने गन्धोदकसे युक्त सुगन्धित पुष्पोंकी वृष्टि की। (१७) देव कहने लगे कि साधु ! साधु ! अणुव्रतोंको दृढ़तापूर्वक धारण करनेवाली सीताका शाल निर्मल है और हृदय मेरुकी भाँ.ते निष्प्रकम्प है। (१८) तब लक्ष्मणने सीताके चरणों में प्रणाम किया। उसने भी तीव्र स्नेहसे उस कुमारका आलिंगन किया। (१०) उसने कहा कि, हे भद्र ! पहले श्रमणोत्तमने जो कहा था वह वैसा ही स्पष्ट हमने सुना. देखा और अनुभव किया।२०) पृथ्वीनाथ तुम चक्रवर्तीकी लक्ष्मीके पात्र हुए हो, तुम्हारे इन बड़े भाईने भी बलदेवपन प्राप्त किया है (२१) आनन्दमें आये हुए भामण्डलने भी सहोदरा सीताके चरणोंमें प्रणाम किया। प्रसन्न मनवाली सीताने भी स्नेहस उसका आलिंगन किया। (२२) सुग्रीव. हनुमान, नल, नील, अंगद. चन्द्राभ, सुपेण, विराधित, जाम्बवन्त-इन तथा दूसरे भी बहुत से विद्याधर राजाओंने अनुक्रमसे अपना अपना नाम कहकर सं ताको प्रणाम किया। (२३-४) वे आभरण, विभूषण, विविध प्रकारके उत्तम सुगन्धित विलेपन, वस्त्र एवं दिव्य कुसुम आद लाये थे। (२५),
१. कन्तं मालणदेहं-प्रत्य० ।
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