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पउमचरियं
[७५. ५२कूडतुल-कूडमाणाइएसु रसभेइणो य कावडिया । ते वि मया परलोए, हवन्ति तिरियो उ दुहभागी ॥ ५२ ॥ वय-नियमविरहिया विहु, अज्जव-मद्दवगुणेसु उववेया । उप्पज्जन्ति मणुस्सा, तहाऽऽरियाऽणारिया चेव ॥ ५३ ॥ वय-नियम-सील-संजम-गुणेसु.भावेन्ति जे उ अप्पाणं । ते कालगय समाणा, हवन्ति कप्पालएसु सुरा ॥ ५४ ॥ तत्तो वि चुयसमाणा, चक्कहराईकुले समुप्पन्ना। भोत्तण मणुयसोक्खं, लएन्ति निस्सङ्गपवज्जं ॥ ५५ ॥ चारित्त-नाण-दसण-विसुद्धसम्मत्त-लेसपरिणामा । घोरतव-चरणजुत्ता, डहन्ति कम्म निरवसेसं ॥ ५६ ॥ पंप्फोडियकम्मरया, उप्पाडेऊण केवलं नाणं । ते पावेन्ति सुविहिया, सिवमयलमणुत्तरं ठाणं ।। ५७ ॥ ते तत्थ सङ्गरहिया, अवाबाहं सुहं अणोवमियं । भुञ्जन्ति सुइरकालं, सिद्धा सिद्धिं समल्लीणा ॥ ५८ ॥ अह सो मुणिवरवसभो, इन्दइ-घणवाहणेहि निययभवं । परिपुच्छिओ महप्पा, कहिऊण तओ समाढत्तो ।। ५९ ॥ कोसम्बीनयरीए, सहोयरा आसि तत्थ धणहीणा । घणपीइसंपउत्ता, नामेणं पढम-पच्छिमया ॥ ६० ॥ अह तं पुरी भमन्तो, भवदत्तो नाम आगओ समणो । तस्स सयासे धम्म, सुणेन्ति ते भायरा दो वि ॥ ६१ ॥ संवेगसमावन्ना, नाया ते संजया समियपावा । नयरीऍ तोऍ राया, नन्दो महिला य इन्दुमुही ।। ६२ ॥ अह तत्थ पट्टणवरे, परमविभूई कया नरिन्देणं । धय-छत्त-तोरणाईसु चेव कुसुमोवयारिल्ला ॥ ६३ ॥ दट्टण तं विभूई, कयं नियाणं तु पच्छिमजईणं । "होमि अहं नन्दसुओ, नइ मे धम्मस्स माहप्पं ।। ६४ ।। बोहिज्जन्तो वि मुणी, अणियत्तमणो नियाणकयगाहो । मरिऊण य उववन्नो, गन्भम्मि उ इन्दुवयणाए ॥ ६५ ॥ गभट्ठियस्स रन्ना, बहूणि कारावियाणि लिङ्गाणि । पायारनिवसणाई, जायाइं रज्जकहणाइं ॥ ६६ ॥ जाओ कुमारसीहो, अह सो रइवद्धणो ति नामेणं । अमरिन्दरूवसरिसो, रजसमिद्धिं समणुपत्तो ॥ ६७ ॥
भूठे तौल, झूठे माप आदिसे तथा घी आदि रसोंमें जो मिश्रण करनेवाले कपटी लोग हैं वे भी मरकर दूसरे जन्ममें दुःखभागी तिर्यञ्च होते हैं। (५२) व्रत-नियमसे रहित होने पर भी आर्जव एवं मार्दव गुणोंसे युक्त जीव मनुष्यके रूपसे उत्पन्न होते हैं और आर्य या अनार्य होते हैं। (५३) जो व्रत, नियम, शील एवं संयमके गुणोंसे आत्माको वासित करते हैं वे मरने पर कल्पलोकमें देवके रूपमें पैदा होते हैं। (५४) वहाँसे च्युत होने पर चक्रवती आदिके कुलोंमें उत्पन्न वे मनुष्य सुखका उपभोग करके आसक्तिरहित प्रव्रज्या अंगीकार करते हैं। (५५) चारित्र, ज्ञान और दर्शन तथा विशुद्ध सम्यक्त्व, विशुद्ध लेश्या और विशुद्ध परिणामवाले वे घोर तप एवं चारित्रसे युक्त हो कर्मको सम्पूर्ण रूपसे जला डालते हैं। (५६) कर्मरजका विनारा करके और केवल ज्ञान पैदा करके वे सुविहित शिव, अचल और अनुत्तर स्थान प्राप्त करते हैं। (५७) सिद्धिको प्राप्त वे संगरहित सिद्ध वहाँ अव्यायाध और अनुपम सुखका अनन्तकाल तक उपभोग करते हैं । (५८)
इसके पश्चात् इन्द्रजित और घनवाहनने अपने पूर्व भवके बारेमें मुनिवरसे पूछा। तब उन महात्माने कहा कौशाम्बी नगरीमें प्रथम और पश्विम नामके दरिद्र किन्तु अत्यन्त प्रीतियुक्त दो भाई रहते थे । (५६-६०) विहार करते हुए भवदत्त नामक एक श्रमण उस नगरीमें आये । उन दोनों भाइयोंने उनके पास धर्म सुना । (६१) वैराग्ययुक्त वे पापका शमन करनेवाले संयमी हुए। उस नगरीका राजा नन्द और रानी इन्दुमुखी थी। (६२) उस उत्तम नगरमें राजाने ध्वज, छत्र एवं तोरण आदिसे तथा पुष्प-रचनासे बड़ी भारी धामधूम की। (६३) उस धामधूमको देखकर पश्चिम नामके साधुने निदान (भावी जन्मके लिए संकल्प) किया कि यदि धर्मका माहात्म्य है तो मैं नन्द राजाका पुत्र होऊँ। (६४) समझाने पर भी अनिवृत्त मनवाला और निदानके लिए ज़िद करनेवाला वह मुनि मरकर इन्दुमुखीके गर्भमें उत्पन्न हुआ। (६५) जब वह गर्भ में था तब गजाने बहुत-से लिङ्ग करवाये तथा राज्यमें वर्णन करने योग्य अर्थात् दर्शनीय प्राकारोंसे युक्त सन्निवेशोंकी स्थापना की। (६६) सिंहके समान श्रेष्ठ कुमारका जन्म हुआ। अमरेन्द्र के समान रूपवाले रतिवर्धन नामक उस कुमारने राज्यकी समृद्धि प्राप्त की। (६७)
१. • या दुहाभागी--प्रत्य० । २. पप्फोडिऊण कम्म, उपा प्रत्य० । ३. नन्दी मु.। ४. इन्दुमई-प्रत्यः । ५. होज अहं नन्दिसुओ जइ धम्मरसऽस्थि माहप्पं मु.।
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