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७४. ३३ ]
७४. पीयंकरउवक्खाणपव्वं
२२ ॥
विज्जाहराण सामी, होऊणं सत्ति-कन्ति बलजुत्तो । रामस्स विग्गहे किं, सुवसि पहू धरणिपल ? ॥ १८ ॥ उहि सयणवच्छल !, एक्कं पि य देहि अम्ह उल्लावं । अवराहविरहियाणं, किं कोवपरायणो नाओ ? ॥ १९ ॥ परिहास कहासत्तं, विसुद्ध दसणावलीपरमसोमं । वयणिन्दुमिमं सामिय!, किं धारसि अम्ह परिकुविओ ? ॥ २० ॥ असुन्दरे मणोहरवित्थिपणे जुबइकीलणट्टाणे । कह ते चक्केण पयं दिनं वच्छत्थलाभो ॥ २१ ॥ वइरीहि नियलबद्धे, इन्दइ- घणवाहणे परायते । मोएहि राहवेणं, गुणनिहि ! पीई करेऊणं ॥ उहि सयणवच्छल !, अत्थाणिसमागयाण सुहडाणं । बहुयाण' असरणाणं, देहि पहू ! दाण-सम्माणं ॥ विरहग्गिं दीवियाई, विज्झवसु इमाई नाह! अङ्गाई । अवगूहणोदएणं, चन्दणसरिसालेवेणं ॥ हरियाणि विलसियाणि य, अणेगचडुकम्मकरणाणि पहू ! । सुमरिज्जन्ताणि इहं, दहन्ति हिययं निश्वसेसं ॥ एवं रोवन्तीणं, रावणविलयाण दीणवयणाणं । हिययं कस्स न कलणं, नायं चिय गग्गरं कण्टं ॥ एयन्तरम्मि रामो, लक्खणसहिओ विभीसणं भणइ । मा रुयसु भद्द ! दीणं, जाणन्तो लोगवित्तन्तं ॥ नासि य निच्छरणं, कम्माणं विचिट्टियं तु संसारे । पुवोवत्तं पावइ, जीवो किं एत्थ सोएणं बहुत्थपण्डिओवि हु, दसाणणो सयलवसुमईनाहो । मोहेण इममवत्थं, नीओ अइदारुणवलेणं ॥ रामवयणावसाणे, विभीसणं भणइ तत्थ जणयसुओ । समरे अदिन्नपट्टी, किं सोयसि रावणं धीरं ॥ ३० ॥ मोत्तूण इमं सोयं, निगुणसु अक्खाणयं कहिज्जन्तं । लच्छीहरद्वयमुओ, अक्खपुरे नरवई वसई ॥ ३१ ॥ अरिदमणोति पयासो, परविसए भञ्जिऊण रिउसेन्नं । कन्तादरिसणहियओ, निययपुरं आगओ सिग्धं ॥ ३२॥ तं पविणि नय, तोरण-धयमण्डियं मणभिरामं । पेच्छइ य निययमहिलं, आहरणविभूसियं सगिहे ॥ ३३ ॥
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होकर रामके साथके विग्रह में पृथ्वीरूपी पलंग पर क्यों सोते हो ? (१८) अपने लोगों पर वात्सल्यभाव रखनेवाले तुम उठो । हमारे साथ एक बार बोलो तो सही । निरपराध के ऊपर तुम कुपित क्यों हुए हो ? (१६) हे स्वामी ! परिहास कथा में आसक्त और विशुद्ध दन्तपंक्तिके कारण अत्यन्त शोभायुक्त इस मुखको हम पर गुस्सेसे क्यों सफेद-सा बना रखा है ? (२०) हे मनोहर ! अत्यन्त सुन्दर, विस्तीर्ण, युवतियों के क्रीडास्थान जैसे तुम्हारे वक्षस्थल पर चक्रने पैर कैसे दिया ? (२१) हे गुणनिधि ! शत्रुओंके द्वारा जंजीर में जकड़े हुए और पराधीन इन्द्रजित एवं घनवाहनको रामके साथ सन्धि करके छुड़ाओ । (२२) हे स्वजनवत्सल प्रभो ! उठो । सभास्थान में आये हुए बहुतसे अशरण सुभटोंको दान-सम्मान दो । (२३) हे नाथ ! विरहाग्निसे जलते इन शरीरोंको चन्दनसे युक्त लेपवाले आलिंगनरूपी जलसे बुझायो । (२४) हे प्रभो ! हास्य, विलास तथा अनेक प्रिय सम्भाषणों के कारणोंको याद करने पर वे हृदयको अत्यन्त जलाते हैं । (२५)
लक्ष्मीधरध्वजका पुत्र प्रख्यात अरिदमन राजा अक्षपुर में रहता था । पत्नीके दर्शनकी इच्छावाला वह शीघ्र ही अपने नगरमें लौट आया । ( ३१-२) नगरमें प्रवेश करके उसने अपने भवनमें आभूषणोंसे विभूषित अपनी पत्नी को १. ०ण दरिसणमिणं, देह मु० । २. ग्गिदूमियाई - प्रत्यं० । ३. वहियं ? मु० । ५४
दीन वदनवाली रावणकी स्त्रियों को इस तरह रोते देख किसका हृदय करुण और कण्ठ गद्गद नहीं हुआ ? (२६) तब लक्ष्मणके साथ रामने विभीषण से कहा कि भद्र ! लोकका वृत्तान्त जानने वाले तुम दीन होकर मत रोओ। (२७) संसारमें जो कर्मोंकी चेष्टा होती है उसे तुम अवश्य ही जानते हो । पूर्वका उपात्त ही जीव पाता है, अतः यहाँ शोक करनेसे क्या फायदा ? ( २= ) सब शास्त्रोंमें पण्डित और सारी पृथ्वीका स्वामी रावण भी अतिदारुण वलवाले मोहके कारण इस अवस्थाको प्राप्त हुआ । (२६) रामके कहने के बाद जनकसुत भामण्डलने विभीषणसे कहा कि युद्ध में पीठ न दिखानेवाले धीर रावणके लिये शोक क्यों करते हो ? (३०) इस शोकका परित्याग करके जो आख्यान कहा जाता है उसे तुम सुनो
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विदेशमें शत्रुसैन्यका विनाश करके हृदयमें तोरण एवं ध्वजाओंसे मण्डित उस मनोहर देखा । ( ३३ ) राजाने उससे पूछा के किसने
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