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७१. लक्खणरावणजुज्झपव्वं रामो रहं विलम्गो, केसरिजुत्तं निबद्धतोणीरं । लच्छोहरो वि एवं, आरूढो सन्दणं गरुडं ॥ १५ ॥ भामण्डलमाईया, अन्ने वि महाभडा कवइयङ्गा । रह-गय-तुरयारूढा, संगामसमुज्जया जाया ॥ १६ ॥ एवं कइबलसहिया, सन्नद्धा पउमनाह-सोमित्ती । सेणिय ! विणिग्गया ते, जुज्झत्थे वाहणारूढा ॥ १७ ॥ जन्ताण ताण सउणा, महुरं चिय वाहरन्ति सुपसत्थं । साहन्ति निच्छएणं, पराजयं चेव आणन्दं ॥ १८ ॥ दट्ट ण सत्तुसेन्नं, एजन्तं रावणो तओ रुट्टो । निययबलेण समग्गो, वाहेइ रहं सवडहुतं ॥ १९ ॥ गन्धव-किन्नरगणा, अच्छरसाओ नहङ्गणत्थाओ । मुञ्चन्ति कुसुमवासं, दोसु वि सेन्नेसु सुहडाणं ॥ २० ॥ वियडफर-फलय-खेडय-वसु-नन्दयगोविएसु अङ्गेसु । पविसन्ति समरभूमि, चलदिट्ठी पढमपाइक्का ॥ २१ ॥ आसेसु कुञ्जरेसु य, केइ भडा रहवरेसु आरूढा । नाणाउहगहियकरा, आभिट्टा सहरिसुच्छाहा ॥ २२ ॥ सर-झसर-सत्ति-सबल-फलिहसिला-सेल-मोग्गरसयाई । वरसुहडपत्तियाई, पडन्ति जोहे वहन्ताई ॥ २३ ॥ खग्गेहि केइ सुहडा, संगामे वावरन्ति चलहत्था । अन्ने य गयपहारं, देन्ति समत्थाण जोहाणं ॥ २४ ॥ सोसगहिएक्कमेक्का, अन्ने छुरियापहारजज्जरिया । दप्पेण समं जीयं, मुयन्ति देहं च महिवढे ॥ २५ ॥ खज्जन्ति धरणिपडिया, वायस-गोमाउ-गिद्धनिवहेणं । ओयड्डियन्तरुण्डा, रुहिर-वसाकद्दमनिबुड्डा ॥ २६ ॥ हत्थी हत्थीण सम, जुज्झइ रहिओ समं रहत्थेणं । तुरयबलग्गोसुहडो, तुरयारूढं विवाएइ ॥ २७॥ असि-कणय-चक्क-तोमर-अन्नोन्नावडियसत्थघायग्गी । अह तक्खणम्मि जाओ, संगामो सुहडदुबिसहो ॥ २८ ॥ उम्मेण्ठा मत्तगया, भमन्ति तुरयाऽऽसवारपरिमुक्का । भज्जन्ति सन्दणवरा, छिज्जन्ति धया कणयदण्डा ॥ २९ ॥
पास गये। (१४) सिंह जुते तथा तरकश बाँधे हुए रथ पर राम सवार हुए। इसी प्रकार लक्ष्मण भो गरुड़-रथ पर आरूढ़ हुआ (१५) शरीर पर कवच धारण किये हुए भामण्डल आदि दूसरे महासुभट भी रथ, हाथी एवं घोड़ों पर सवार हो संग्रामके लिए उद्यत हुए (१६) हे श्रेणिक ! इस प्रकार तैयार हो वाहनमें आरूढ़ राम और लक्ष्मण वानरसेनाके साथ युद्धके लिए निकल पड़े । (१७) उनके चलने पर पक्षी मधुर और सुप्रशस्त स्वरमें बोलने लगे। वे सुनिश्चित रूपसे शत्रुका पराजय और अपने लिए आनन्दकी सूचना दे रहे थे। (१८) तब शत्रुसैन्यको आता देख कुपित रावणने सामने सेनाके साथ रथ हाँका । (१६) गन्धर्व एवं किन्नर गगोंने तथा आकाशमें स्थित अप्सराओं ने दोनों सेनाओंके सुभटोंके ऊपर पुष्पोंकी वृष्टि की। (२०)
भयंकर फर (ढाल), फलक (अस्त्रविशेष), स्फेटक (नाश करनेवाला शस्त्र) तथा वसुनन्दन (एक तरहकी उत्तम तलवार ) से शरीरको सुरक्षत करके सर्वप्रथम चपल दृष्टेिवाले पैदल सैनिकोंने समरभूमिमें प्रवेश किया। (२१) कई सुभट घोडों पर, कई हाथियों पर तो कई उत्तम रयों पर आरूढ़ हुए। हर्प और उत्साहसे युक्त वे हायमें नाना प्रकारके आयुध लेकर भिड़ गये। (२२) उत्तम सुभटों द्वारा गृहीत और योद्धाओंको मारनेवाले सैकड़ों वाण, झसर, शक्त, सव्वल, स्फटिक शिलावाले पर्वत और मुद्गर गिरने लगे। (२३) युद्धमें कई चपल हाथवाले सुभट तलवारों का उपयोग करते थे, तो दूसरे समर्थ योद्धाओंके ऊपर गदाका प्रहार करते थे। (२४) तलवारके प्रहारसे जर्जरत दूसरे योद्धा एक-दूसरेका मस्तक ग्रहण करके प्रागों के साथ शरीरको भी दर्पके साथ पृथ्वीतल पर छोड़ते थे। (२५) जमीन पर गिरे हुए और खून, चर्बीके कीचड़से सने हुए तथा खेचे जाते धड़ कोए, सियार और गीधके समूह द्वारा खाये जाते थे। (२६) हाथीके साथ हाथी और रथमें बैठे हुएके साथ रथी युद्ध करने लगे। घोड़े पर बैठा हुआ सुभट घुड़सवारको मारने लगा। (२७) तलवार, कनक, चक्र एवं तोमरके एक-दूसरे पर गिरनेसे तथा शस्त्रोंके आयातसे उठनेवाली आगवाला और सुभटोंके लिए अत्यन्त दुःसह ऐसा संग्राम तत्क्षण होने लगा । (२८) महावतोंसे रहित हाथी और सवारोंसे रहित घोड़े घूमने लगे। अच्छे अपने रथ टटने लगे और सोनेके दण्डवाली ध्वजाएँ छिन्न होने लगी। (२६) गिरती हुई तलवारोंका खन्नन् शब्द
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