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पउमचरियं
[७२. २१ तं लक्खणो वि एन्तं, आउहनिवहं सरेहि छेत्तृणं । छाएऊण पवत्तो, पडिसत्तुं बाणनिवहेणं ॥ २१ ॥ एकं च दोष्णि तिण्णि य, चत्तारि य पञ्च दस सहस्साई। लक्खं सिराण छिन्दइ, अरिस्स नारायणो सिग्धं ॥ २२ ॥ निवडन्तएसु सहसा, बाहासहिएसु उत्तिमङ्गेसु । छन्नं चिय गयणयलं, रणभूमी चेव सविसेसं ॥ २३ ॥ जं जं सिरं सबाहु, उप्पज्जइ रावणस्स देहम्मि । तं तं सरेहि सबं, छिन्दइ लच्छीहरो सिग्धं ॥ २४ ॥ रावणदेहुक्कत्तिय-पयलन्तुद्दामरुहिरविच्छडु। जायं चिय गयणयलं, सहसा संझारुणच्छायं ॥ २५ ॥ पयलन्तसेयनिवहो, जणियमहायासदीहनीसासो । चिन्तेइ सेणिय! तओ, चक्कं लङ्काहिवो रुट्टो ॥ २६ ॥ वेरुलियसहस्सारं, मोत्तियमालाउलं रयणचित्तं । चन्दणकयचच्चिकं, समच्चियं सुरभिकुसुमेहिं ॥ २७ ॥ सरयरविसरिसतेयं, पलयमहामेहसरिसनिग्धोसं । चिन्तियमेत्तं चक्कं, सन्निहियं रावणस्स करे ॥ २८ ॥ किन्नर-किंपुरिसगणा, विस्सावसु-नारया सहऽच्छरसा । मोत्तण समरपेक्खं, भएण दूरं समोसरिया ॥ २९ ॥ तं चक्करयणहत्थं, दसाणणं भणइ लक्षणो धीरो । जइ काइ अस्थि सत्ती, पहरसु मा णे चिरावेसु ॥ ३० ॥ सो एव भणियमेत्तो, रुट्ठो तं भामिऊण मणवेगं । मुञ्चइ पलयकणिहं जयसंसयकारणं चक्कं ॥ ३१ ॥
ठूण य एज्जन्तं, चकं सवडम्मुहं घणनिणायं । आढत्तो सोमित्ती, वारेउं तं सरोहेणं ।। ३२ ॥ वज्जावत्तेण य नंगलेण पउमो निवारणुज्जत्तो। सुग्गीवो वि गयाए, पहणइ भामण्डलो असिणा ॥ ३३ ॥ वारेऊण पवत्तो, सूलेण विहीसणो महन्तेणं । हणुओ वि मोग्गरेणं, सुग्गीवसुओ कुठारेणं ॥ ३४ ॥ सेसा वि सेसपहरण-सएसु समजोहिउं समाढत्ता । तह वि य निवारिउं ते, असमन्था वाणरा सबै ॥ ३५ ॥ तं आउहाण निवह, भन्तूण समागयं महाचकं । सणियं पयाहिणेलं, अहिट्टियं लक्खणस्स करे ॥ ३६॥
छानेका प्रयत्न करने लगा। (२१) नारायण लक्ष्मणने शीघ्र ही शत्रुके एक हजार, दो हज़ार, तीन हज़ार, चार हजार, पाँच हजार, दस हजार, लाख सिर काट डाले । (२२) भुजाओंके साथ मस्तकोंके सहसा गिरनेसे आकाश और रणभूमि तो सविशेष छा गई । (२२) बाहुके साथ जो जो सिर रावगके शरीर पर उत्पन्न होता था उस सबको लक्ष्मण बाणोंसे शीघ्र ही काट डालता था। (२४) रावणके शरीरके कटने के कारण बहनेवाले ढेर रक्तके फैलनेसे आकाश सहसा सन्ध्याकालीन अरुणकान्ति जैसा हो गया । (२५)
हे श्रेणिक ! ढेर-सा पसीना जिसका बह रहा है और जो अत्यन्त श्रमसे जनित दीर्घ निःश्वाससे युक्त है ऐसा रुष्ट लंकेश तब चक्रके विषयमें सोचने लगा। (२६) वैडूर्यके बने हुए एक हजार प्रारोंवाला, मोतियोंकी मालासे व्याप्त, रत्नोंसे चित्र-विचित्र, चन्दनसे अनुलिप्त, सुगन्धित पुष्पों द्वारा पूजित, शरत्कालीन सूर्यकी भाँति तेजस्वी, प्रलयकालीन महामेघकी तरह निर्घोष करनेवाला-ऐसा चक्र सोचते ही रावणके हाथमें आ गया। (२७-) अप्सराओंके साथ किन्नर और किंपुरुषोंके गण, विश्वावसु और नारद युद्धको देखना छोड़ दूर चले गये । (२६) चक्ररत्नसे युक्त हाथवाले रावणसे वीर लक्ष्मणने कहा कि यदि तेरे पास कोई शक्ति है तो प्रहार कर। देर मत लगा । (३०) इस प्रकार कहे जानेपर क्रुद्ध उसने मनकी भाँति वेगशील, प्रलयकालीन सूर्य सरीखे तथा विजयमें संशय पैदा करनेवाले उस चक्रको घुमाकर छोड़ा । (३१) खूब आवाज़के साथ सामने आते हुये चक्रको देख लक्ष्मण उसे बाण-समूहसे रोकनेका प्रयत्न करने लगा। (३२) वज्रावर्त धनुष एवं हलसे राम भी निवारणका प्रयत्न करने लगे। गदासे सुग्रीव तथा तलवारसे भामण्डल उसपर प्रहार करने लगे । (३३) विभीषण बड़े भारी शूलसे उसे रोकने लगा। हनुमान भी मुद्गरसे तथा सुग्रीवका पुत्र अंगद कुठारसे उसे रोकने लगा। (३४) दूसरे भी बाकीके सैकड़ों प्रहरणोंसे जूझने लगे, फिर भी वे सब वानर उसका निवारण करने में असमर्थ रहे । (३५) आयुधोंके समूहका विनाश करके वह महाचक्र धीरेसे प्रदक्षिणा करके लक्ष्मगके हाथमें अधिष्ठित हुआ। (३६) परभवमें किये गये
१. चिरावेह-प्रत्य० । २. कुरो तं-प्र.। ३. य-प्रत्यः ।
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