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७१. लक्खणरावणजुज्झपव्वं
अह सो रक्खसनाहो, कमेण आपुच्छिऊण घरिणीओ । कोहं समुबहन्तो, विणिग्गओ निययनयरीओ ॥ १ ॥ इन्दं नाम रहं सो, पेच्छइ बहुरूविणीऍ निम्मवियं । विविहाउहाण पुण्णं, दन्तिसहस्सेण संजुत्तं ॥ २ ॥ अह ते मत्तगइन्दा, एरावणसन्निभा चउविसाणा । गेरुयकयङ्गराया, घण्टासु य कलयलारावा ॥ ३ ॥ अह सो महारहं तं, आरूढो केउमण्डणाडोवं । आहरणभूसियङ्गो, इन्दो इव रिद्धिसंपन्न ॥ ४ ॥ तस्स विलग्गस्स रहे, समूसियं चन्दमण्डलं छत्तं । गोखीर-हारधवलं च उद्ध्यं चामराजुयलं ॥ ५ ॥ पडुपडह-सङ्ख-काहल-मुइङ्ग - तिलमा गहीरपणवाणं । पहयं पहाणतूरं, पलयमहामेहनिग्घोसं ॥ ६ ॥ अप्पसरिसेहि समयं, दसहि सहस्सेहि खेयरभडाणं । सुरसरिसविक्कमाणं, रणकंण्डू उबहन्ताणं ॥ ७ ॥ एयन्तरम्मि पउमो, पुच्छइ सुहडा सुसेणमाईया । भो भो ! कहेह एसो, दीसइ कवणो नगवरिन्दोः ॥ ८ ॥ अलिउलतमालनीलो, जम्बूनयविविहसिहर संघाओ । चञ्चलतडिच्छडालो, नज्जइ मेहाण संघाओ ॥ ९॥ तो भइ जम्बुवन्तो, सामिय! बहुरूविणीऍ विज्जाए । सेलो कओ महन्तो, दीसह लङ्काहिवो एसो ॥ १० ॥ जम्बूणस्स वयणं, सोऊणं भणइ लक्खणो एत्तो । आणेह गरुडकेडं, महारहं मा चिरावेह ॥ ११ ॥ अह तत्थ महाभेरी, समाहया ऽणेयतूरसमसहिया । सद्देण तीऍ सिग्धं, सन्नद्धा कइवरा सबे १२ ॥ असि-कणय-चक्क-तोमर-नाणाविहपहरणा - SSवरणहत्था । रुम्भन्ति पवयनोहा, रणपरिहत्था सकन्ताहिं ॥ १३ ॥ सुमहरवयणेहि तओ, संथाविय कइवरा पणइणीओ । सन्नद्धाउहपमुहा पउमस्यासं समल्लीणा ॥
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७१. रावण-लक्ष्मण युद्ध
वह राक्षसनाथ रावण अनुक्रमसे रानियोंसे पूछकर कोप धारण करता हुआ अपनी नगरी में से बाहर निकला । (१) बहुरूपिणी विद्या द्वारा विनिर्मित, विविध आयुधोंसे परिपूर्ण तथा हजार हाथियोंसे जुते हुए इन्द्र नामके रथको उसने देखा । (२) ऐरावत के जैसे वे मत्त हाथी चार दाँतवाले थे । गेरूसे उन पर अंगराग किया गया था तथा घण्टोंके कारण वे कलकल ध्वनि कर रहे थे । (३) ध्वजा एवं मण्डपसे शोभित उस रथ पर आभूषणोंसे विभूषित शरीरवाला तथा इन्द्र समान ऋद्धि सम्पन्न वह रावण आरूढ़ हुआ । (४) रथ पर बैठे हुए उस पर चन्द्रमण्डलके जैसा छत्र धरा गया तथा गाय के दूध एवं हारके समान धवल दो चँवर डुलाये जाने लगे । (५) उस समय प्रलयकालीन महामेघ के समान निर्घोष करनेवाले बड़े बड़े ढोल, शंख, काहल, मृदंग, तिलिमा तथा गंभीर ध्वनि करनेवाले नगाड़ों जैसे उत्तम वाद्य बजाये गये । (६) देवोंके समान विक्रमशील तथा लड़ाई की खुजली धारण करनेवाले अपने ही जैसे दस हजार सुभटोंके साथ रावण चला। (७)
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इस बीच रामने सुषेण आदि सुभटोंसे पूछा कि यह कौनसा उत्तम पर्वत दीख रहा है यह कहो । (८) भौरे तथा तमालके समान नीलवर्णवाला तथा सोनेके अनेक शिखरोंसे युक्त यह पर्वत चंचल बिजली से शोभित मेघों के समूह जैसा लगता है । (६) तब जाम्बवन्तने कहा कि, हे स्वामी ! बहुरूपिणी विद्याने यह महान् पर्वत बनाया है । यह रावण दिखाई दे रहा है । (१०) जाम्बूनदका यह कहना सुन लक्ष्मणने कहा कि महारथ गरुड़केतु लाओ । देर मत करो। (११) तब अनेक वाद्योंके साथ महाभेरी बजाई गई । उसके शब्दसे शीघ्र ही सब कपिवर तैयार हो गये । (१२) तलवार, कनक, चक्र, तोमर आदि नानाविध प्रहरण हाथमें धारण किये हुए युद्धकुशल वानरयोद्धा अपनी अपनी पत्नियों द्वारा रोके गये । (१३) तब सुमधुर वचनोंसे प्रियाओंको आश्वासन देकर कवचधारी और आयुधोंसे युक्त कपिवर रामके
१. कण्डु – प्रत्य• ।
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