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४१२ पउमचरियं
[७०. ४०० अहवा अणुबयधरो, होऊणं सील-संजमाभिरओ । देव-गुरुभत्तिजुत्तो, दहमुह ! दुक्खक्खयं कुणसु ॥ ४०॥ अट्ठारसहि दसाणण!, जुवइसहस्सेहि जो तुम तित्ति । न गओ अणङ्गमूढो सो कह एकाएँ वच्चिहिसि? ॥ ४१ ॥ इह सयलजीवलोए, विसयसुहं भुञ्जिङ सुचिरकालं । जइ कोइ गओ तित्ति, पुरिसो तं मे समुद्दिससु ॥ ४२ ॥ तम्हा इमं महाजस!, विसयसुहं अप्पसोक्खबहुदुक्खं । वज्जेहि वज्जणिज्ज, परमहिलासंगम एयं ॥ ४३ ॥ बहुभडखयंकरेणं, देव ! न कज्ज इमेण जुज्झेणं । बद्धञ्जलिमउडा है, पडिया वि हु तुज्झ पाएसु ॥ ४४ ॥ हसिऊण भणइ वीरो, उट्टेहि किसोयरी! भउबेयं । मा वच्चसु पसयच्छी!, नामेणं वासुदेवाणं ॥ ४५ ॥ बलदेव-वासुदेवा, हवन्ति बहवो इहं भरहवासे । तह वि य किं संजायइ, सिद्धी खलु नाममेत्तेणं? ॥ ४६ ॥ रहनेउरनयरवई, नह इन्दोऽणिबुई मए नीओ । तह य इमं कीरन्तं, पेच्छसु नारायणं सिग्छ । ४७ ।। भणिऊण वयणमेयं, समयं मन्दोयरीऍ दहवयणो । कीलणहरं पविट्ठो, ताव य अत्थं गओ सूरो ।। ४८ ॥ अस्थायम्मि दिणयरे, संझासमए समागए सन्ते । मउलेन्ति कमलयाई, विरहो चक्कायमिहुणाणं ॥ ४९ ॥ जाए पओससमए, पज्जलिए रयणदीवियानिवहे । लकापुरी विभायइ, मेरुस्स व चुलिया चेव ।। ५० ॥ पेसिज्जइ जुबइजणो, विरइज्जइ मण्डणं पिययमाणं । मोहणसुहं महिज्जइ, मइर च्चिय पिज्जइ पसन्ना ।। ५१ ॥ का वि पियं वरजुबई, अवगृहेऊण भणइ चन्दमुही। अपि एक्कं पि य रत्ति, माणेमु तुमे समं सामि! ॥ ५२ ॥ अन्ना पुण महुमत्ता, वरकुसुमसुयन्धगन्धरिद्धिल्ला । पडिया पियस्स अङ्के, नवकिसलयकोमलसरीरा ॥ ५३ ॥ का वि य अपोढबुद्धी, बाला दइएण पाइया सीधु । पोढत्तणं पवन्ना, तक्खणमेत्तेण चडुकम्मं ॥ ५४॥ जह जह वलग्गइ मओ, जुवईणं मयणमूढहिययाणं । तह तह वढ्इ राओ, लज्जा दूरं समोसरइ ॥ ५५ ॥
अणुदियहजणियमाणा, पभाइए जाणिऊण संगामं । घणविरहभीयहियया, अवगृहइ पिययम धणियं ॥ ५६ ॥ हो दुःखका विनाश करो। (४०) हे दशानन ! अठारह हजार युवतियोंसे कामसे विमोहित तुम्हें यदि तृप्ति न हो सकी तो एकसे कैसे होगी ? (४१) इस समग्र जीवलोकमें सुचिर काल पर्यन्त विषय सुखका उपभोग करके यदि किसी पुरुषको तृप्ति हुई हो तो ऐसा पुरुष मुझे दिखाओ। (४२) अतः हे महायश ! अल्प सुखदायी तथा बहुत दुःखकर इस विषय सुखका परित्याग करो और इस त्याज्य परनारीके संसर्गको छोड़ो। (४३) हे देव ! अनेक सुभटोंका विनाश करनेवाले इस युद्धसे कोई प्रयोजन नहीं है। मैं सिर पर हाथ जोड़कर आपके पैरोंमें पड़ती हूँ। (४४) इसपर हँस करके वीर रावणने कहा कि, हे कृशोदरी ! प्रसन्नाक्षी ! वासुदेवके नामसे तुम भय और उद्वेग मत धारण करो । (४५) इस भरतखण्डमें बहुतसे बलदेव और वासुदेव होते हैं, फिर भी क्या नाममात्रसे सिद्धि होती है ? (४६) जिस तरह रथनूपुर नगरके स्वामी इन्द्रको मैंने बन्धनमें डाला था उसी तरह किये जाते इस नारायणको भी तुम शीघ्र ही देखोगी। (४७) ऐसा वचन कहकर मन्दोदरीके साथ रावणने क्रीड़ागृहमें प्रवेश किया। उस समय सूर्य भी अस्त हो गया। (४८) सूर्यके अस्त होने पर और सन्ध्या समयके आने पर कमल मुरझा गये तथा चक्रवाकका जोड़ा बिछुड़ गया । (४६) प्रदोषवेला होनेपर और रत्न दीपेकाओंके जलने पर लंकापुरा मेरुको चूलिकाकी भाँति शोभित हुई। (५०) उस समय युवतियाँ भेजी जाने लगी, प्रियतमाओंका मण्डन किया जाने लगा, रतिसुख मनाया जाने लगा और प्रसन्न करनेवाली मदिराका पान होने लगा। (५१) कोई चन्द्रमुखी सुन्दर युवते पतेको आलिंगन देकर कह रही थी कि हे स्वामी ! तुम्हारे साथ मैं भी एक रात तो आनन्द मनाऊँ। (५२) मधुपानसे मत्त, उत्तम सुगन्धित पुष्पोंकी गन्धसे समृद्ध तथा नवीन किसलयके समान कोमल शरीरवाली दूसरी स्त्री प्रियकी गोदमें गिरती थी। (५३) अप्रौढ़ बुद्धिवाली कोई स्त्रीने प्रियके द्वारा मद्य पिलाये जाने पर तत्काल ही रातकर्ममें प्रौढ़ता प्राप्त की। (५४) जैसे-जैसे विरहसे भयभीत हृदयवाली युवतियोंको मद चढ़ता गया वैसे-वैसे राग बढ़ता गया और लज्जा दूर होती गई। (५५) प्रातःकालमें संग्राम है ऐसा जानकर प्रतिदिन मान
१. पुरओ मन्दी--प्रत्य० । २. विरह यहिययाणं-प्रत्य० ।
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