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पउमचरियं
[६८. २७तस्स पुरओ ठियाई, तुरियं घेत्तण सहसवत्ताई । पहणइ धरणिनिविटुं, अहोमुहं जुवइवम्गं सो ॥ २७ ॥ सो तस्स अक्खमालं, कराउ हरिऊण तोडइ कुमारो । पुणरवि संधेइ लह, भूओ अप्पेइ विहसन्तो ॥ २८ ॥ सा तस्स अस्वमाला, करम्मि सुविसुद्धफलिहनिम्माया । रेहइ डोलायन्ती, मेहस्स बलाहपन्ति छ ।। २९ ।। वररयणपज्जलन्ती, छेत्तण य कण्ठियं अइतुरन्तो । निययंसुएण बन्धइ, गलए लङ्काहिवं एत्तो ॥ ३० ॥ घेत्तण य तं वत्थं, उल्लम्बइ रहसपूरियामरिसो । पुणरवि य भवणथम्भे, दहवयणं बन्धइ कुमारो ॥ ३१ ॥ दीणारेसु हसन्तो, पञ्चसु विक्केइ रक्खसाहिवई । निययपुरिसस्स हत्थे, सवइ पुणो तिवसद्दण ॥ ३२ ।। कण्णेसु कुण्डलाई, जुवईण लएइ अङ्गयकुमारो । सिरभूसणाइं गेण्हइ, चलणेसु य नेउराइं पुणो ॥ ३३ ॥ अन्नाएँ हरइ वत्थं, अन्नन्नं बन्धिऊण केसेसु । सहसा करेण पेल्लइ, बलपरिहत्थो परिभमन्तो ॥ ३४ ॥ एवं समाउलं तं, सहसा अन्तेउरं कुमारेणं । आलोडियं नराहिब!, वसहेण व गोउलं सर्व ॥ ३५ ॥ पुणरवि भणइ दहमुहं, रे पाव! छलेण एस जणयसुया । माया काऊण हिया, एकागी हीणसत्तेणं ॥ ३६ ॥ संपइ तुज्झ समक्खं, एयं दइयायणं समत्थं ते । दहमुह ! हरामि रुम्भसु, जइ दढसत्ती समुबहसि ॥ ३७ ।। एव भणिऊण तो सो, सिग्घं मन्दोयरी महादेवी । केसेसु समायड्डइ, लच्छी भरहो चक्कहो ॥ ३८ ॥ पेच्छसु मए दसाणण!, नीया हिययस्स वल्लहा तुज्झ । वाणरवइस्स होही, अह चामरगाहिणी एसा ॥ ३९ ॥ पचलियसबाहरणा, हत्थेण घणंसुयं समारन्ती । पगलियनयणंसुजला, पविसइ दइयस्स भुयविवरं ॥ ४० ॥ हा नाह ! परित्तायसु, नीया हं वाणरेण पावणं । तुज्झ पुरओ महायस!, विलबन्ती दीणकलुणाई ॥ ४१ ॥ किं तुज्झ होहइ पहू !, एएण उवासिएण झाणेणं । जेण इमस्स न छिन्दसि, सीसं चिय चन्दहासेणं ॥ ४२ ॥ एयाणि य अन्नाणि य, बिलबइ मन्दोयरी पयलियंसू । तह वि य गाढयरं सो, धोरो झाणं समारुहइ ।। ४३ ॥
एक स्तम्भके साथ राव उसे गाली-गलौच की किसी स्त्रीका बल जस तरह
कमलोंको जल्द से उठाकर उसने जमीनपर बैठे हुए अधोमुख युवतिवर्गको पीटा । (२७) उसके हाथमें रही हुई विशुद्ध स्फटिककी वनी हुई डोलती अक्षमाला बादलमें वगुलेकी पंक्ति-सी शोभित हो रही थी। (२८) उत्तम रत्नोंसे देदीप्यमान वह माला उस अंगदने बहुत ही जल्दी तोड़ डाली। बादमें अपने वस्त्रसे रावणको गलेमें बाँधा । (२६-३०) एकदम क्रोधमें भरे हुए अंगदने वस्त्रको लटकाया। बाद में कुमारने मन्दिरके स्तम्भके साथ रावणको बाँधा । (३१) हँसते हुए उसने राक्षसाधिपति को पाँच दीनारमें अपने आदमीके हाथ बेच दिया। फिर कठोर शब्दसे उसे गाली-गलौच करने लगा। (३२) अंगदकुमारने युवतियों के कानों से कुण्डल ले लिये, शिरोभूपण तथा पैरों से नूपुर भी ले लिये । (३३) दूसरी किसी स्त्रीका वस्त्र हर लिया। एक-दूसरीको वालोंसे बाँधकर चारों और घूमता हुआ वली वह सहसा उन्हें हायसे पीटने लगा। (३४) हे राजन् ! जिस तरह एक साँढ़ सारे ग कुलको क्षुब्धकर देता है उसी तरह अंगदकुमारने उस अन्तःपुरको एकदम क्षुब्ध कर दिया । (३५)
उसने रावगसे पुनः कहा कि, रे पापी ! निन्दनीय तूने छलसे और माया करके एकाकी इस सीताका अपहरण किया है। (३६) हे रावण ! तेरे सामने ही मैं इन सब स्त्रियों का अपहरण करता हूँ। यदि ताक़त हो तो रोक । (३७) ऐसा कहकर चक्रवर्ती भरतने जिस तरह लक्ष्मी को खेंचा था उसी तरह उसने पटरानी मन्दोदरीको बालोंसे पकड़ कर खंचा। (३८) हे रावग! देख तेरी हृदयवल्लभाको मैं ले जा रहा हूँ। यह वानरपतिकी चामरधारिणी होगी । (३६) जिसके सब आभरण गिर गये हैं ऐसी वह मन्दोदरी हाथसे घन वन सँभालती हुई और आँखोंसे अश्रजल बहाती हुई पतिके भुज-विवरमें प्रवेश करने लगी। (४०) हा नाथ ! रक्षा करो। हे महायश! यह पापी वानर आपके सामने दीन और करुण विलाप करती हुई मुझे ले जा रहा है। (४१) हे प्रभो! आपके इस ध्यानकी उपासनासे क्या होगा यदि चन्द्रहास तलवारसे इसका सिर आप नहीं काटते । (४२) आँसू बहाती हुई मन्दोदरीने ऐसा तथा दूसरा भी विलाप किया, फिर भी धीर वह प्रगाढ़ ध्यानमें लीन रहा । (४३) विद्याकी
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