________________
२३ ॥
२४ ॥
२५ ॥
२६ ॥
२७ ॥
६६. रावणचिंताविहाणपव्वं दट्टुण नणयतणया, सेन्नं लङ्काहिवस्स अइबहुयं । चिन्तेइ वुण्णहियया, न य निणइ इमं सुरिन्दो वि ॥ सा एव उस्सुयमणा, सीया लङ्काहिवेण तो भणिया । पावेण मए सुन्दरि, हरिया छम्मेण विल्वन्ती ॥ गहियं वयं किसोयरि !, अणन्तविरियस्स पायमूलम्मि । अपसन्ना परमहिला, न भुजियबा मए निययं ॥ सुमरन्तेण वयं तं न मए रमिया तुमं विसालच्छी । रमिहामि पुणो सुन्दरि !, संपइ आलम्बणं छेत्तु ं ॥ पुष्फविमाणारूढा, पेच्छसु सयलं सकाणणं पुहई । भुञ्जसु उत्तमसोक्खं, मज्झ पसाएण ससिवयणे ! ॥ सुणिऊण इमं सीया, गग्गरकण्ठेण भणइ दहवयणं । निसुणेहि मज्झ वयणं, जइ मे नेहं समुबहसि ॥ कोववसगएण वि, पउमो भामण्डलो य सोमित्ती । एए न घाइयबा, लङ्काहिव ! अहिमुहावडिया ॥ ताव य जीवामि, अहं जाव य एयाण पुरिससीहाणं । न सुणेमि मरणसद्दं, उब्बियणिज्जं अयण्णसुहं ॥ सा पिऊण एवं पडिया धरणीयले गया मोहं । दिट्ठा य रावणेणं, मरणावत्था पयलियंसृ ॥ मिउमाणसो खुणेणं, जाओ परिचिन्तिउं समाढत्तो । कम्मोयएण बद्धो, को वि सिणेहो अहो गरुओ ॥ धिद्धित्ति गरहणिज्जं पावेण मए इमं कयं कम्मं । अन्नोन्नपोइपमुहं, विओइयं जेणिमं मिथुणं ॥ ससि - पुण्डरीयधवलं, निययकुलं उत्तमं कयं मलिणं । परमहिलाऍ करणं, वम्महअणियत्तचित्तेणं ॥ ३२ ॥ धिद्धी ! अहो ! अकज्जं महिला जं तत्थ पुरिससीहाणं । अवहरिऊण वणाओ, इहाऽऽणिया मयणमूढेणं ॥ ३३ ॥ नरयस्स महावीही, कढिणा सग्गग्गला अणयभूमी । सरिय व कुडिलहियया, वज्जेयब्बा हवइ नारी ॥ ३४ ॥ ना पढमदिसन्ती, अमएण व मज्झ फुसइ अङ्गाई । सा परपसत्तचित्ता, उबियणिज्जा इहं जाया ॥ ३५ ॥ नइ वि य इच्छेज ममं, संपइ एसा विमुक्कसम्भावा । तह वि न य नायइ धिई, अवमाणसुदूमियमणस्स ॥३६॥ भाया मे आसि जया, बिभीसणो निययमेव अणुकूलो । उवएसपरो तइया, न मणो पीहूं समल्लोणो ॥ ३७ ॥
२८ ॥
२९ ॥
२० ॥
३१ ॥
६६. ३७ ]
Jain Education International
२१ ॥
२२ ॥
सुन्दरी ! पापी मैंने विलाप करती हुई तुम्हारा धोखे से अपहरण किया है । (२२) हे कृशोदरी ! अनन्तवीर्यके चरणों में मैंने व्रत लिया है कि अप्रसन्न परनारीका मैं नियमेन उपभोग नहीं करूँगा । (२३) हे विशालाक्षी ! उस व्रतको याद करके मैंने तुम्हारे साथ विलास क्रिड़ा नहीं की है । हे सुन्दरी ! अब रामरूपी आलम्बनका नाश करके मैं तुम्हारे साथ रमण करूँगा । (२४) हे शशिवदने ! पुष्पक विमान में आरूढ़ होकर तुम वनोंसे युक्त सारी पृथ्वी देखो और मेरे प्रसादसे उत्तम सुखका उपभोग करो । ( २५) यह सुनकर गद्गद् कण्ठसे सीताने रावणसे कहा कि मेरा कहना सुन । हे लंकाधिप ! यदि तेरा मुझपर स्नेह है तो क्रोध अत्यधिक वशीभूत होने पर भी संग्राममें सामने आयेहुए राम लक्ष्मण और भामण्डल इनको मत मारना । (२६-२७) मैं तभी तक जीती रहूँगी जब तक इन पुरुषसिहों के बारेमें कानसे असुखकर और उद्वेगकर मरण शब्द नहीं सुनती। ( २८ ) ऐसा कहकर वह जमीन पर गिर पड़ी और बेसुध हो गई । आँसू बहाती हुई उसे रावण मरणावस्था में देखा । (२९) वह एकदम कोमल हृदयवाला हो कर सोचने लगा कि अहो, कर्मोदयके कारण मैं किसी भारी स्नेहसे बँधा हुआ हूँ । (३०) धिक्कार है। पापी मैंने यह निन्दनीय कार्य किया है. जिससे एक-दूसरे पर प्रेम रखनेवाले इस जोडेको मैंने वियुक्त कर दिया है। ( ३ ) परनारीके लिए काममें लीन चित्तवाले मैंने चन्द्र एवं पुण्डरीकके समान सफेद और उत्तम अपने कुलको मलिन किया है । (३२) पुरुषोंमें सिंहके समान रामकी स्त्रीका वनमेंसे अपहरण करके कामसे विमोहित में जो यहाँ लाया हूँ उस कार्यके लिए मुझे धिक्कार है । ( ३३ ) नरकके विशाल मार्ग जैसी, स्वर्गकी कठिन अर्गला समान, अनीति की भूमे सरीखी और नदी की भाँति कुटिल हृदयवाली स्त्रीका त्याग करना चाहिए। (३४) जो पहली बार देखते ही अमृतकी भाँति मेरे अंगोंको छूने लगी उसका चित्त तो दूसरेमें लगा है, अतः वह मेरे लिए उद्वेगकर हो गई है । (३५) रामके प्रति जो सद्भाव है उसका परित्याग करके यदि यह मुझे चाहे भी, तो अपमानसे दुःखित मनवाले मुझे धृति नहीं होगी । ( ३३ ) सतत अनुकूल मेरा भाई विभीषण जब हितका उपदेश देता था तब भी मनमें अनुराग नहीं हुआ । (३७) महासुभट पकड़े गये हैं, दूसरे भी बड़े बड़े योद्धा मारे गये हैं और राम अपमानित
For Private & Personal Use Only
४०७
www.jainelibrary.org