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४०८ पउमचरियं
[६६.३८बद्धा य महासुहडा, अन्ने वि विवाइया पवरजोहा । अवमाणिओ य रामो, संपइ मे केरिसी पीई ! ॥ ३८ ॥ जइ वि समप्पमि अह, गमस्स किवाएँ जणयनिवर्तणया । लोओ दुग्गहहियओ, असत्तिमन्तं गणेही मे ॥ ३९ ॥ इह सीह-गरुडकेऊ, संगामे राम-लक्खणे जिणिउं । परमविभवेण सीया. पच्छा ताणं समप्पे हैं ॥ ४०॥ न य पोरुसस्स हाणी, एव कए निम्मला य मे कित्ती । होहइ समत्थलोए, तम्हा ववसामि संगामं ॥ ११ ॥ एव भणिऊण तो सो, निययघरं पत्थिओ महिड्डीओ । सुमरइ वेरियजणिय, दहवयणो परिहवं ताहे ॥ ४२ ॥ अह तक्खगम्मि रुट्ठो, जंपइ सुग्गीवअङ्गर घेतु। मज्झाउ दो वि अद्धे, करेमि इह चन्दहासेणं ॥ ४३ ।। भामण्डलं पि घेत्त, पावं दढसङ्कलाहि सुनिबद्धं । मोग्गरघायाहिहयं, करेमि गयजोवियं अज्ज ॥ १४ ॥ करवत्तेग मरुसुयं, फालेमिह कट्ठजन्तपडिबद्धं । मारेमि सेससुहडे, लक्खगरामे पमोत्तणं ॥ ४५ ॥ एवं निच्छयहियए. जाए लङ्काहिवे निमित्ताई। नायाइ बहुविहाई, मगहबई अजयवन्ताई ॥ ४६॥ अको आउहसरिसो, परिवेसो अम्बरे फरुसवण्णो । नट्ठो सयलसमत्थो, रयगीचन्दो भएणेव ।। ४७ ॥ नाओ य भूमिकम्पो, घोरा निवडन्ति तत्थ निग्धाया। उक्का य रुहिरवण्णा, पुबदिसा चेव दिप्पन्ती ।। ४८ ।। नालामुही सिवा वि य, घोरं वाहरइ उत्तरदिसाए । हेसन्ति फरुसविरसं, कम्पियगीवा महातुरया ।। ४९ ॥ हत्थी रडन्ति घोरं, पणन्ता वसुमई सहत्थेणं । मुञ्चन्ति नयणसलिलं, पडिमाओ देवयाणं पि ॥ ५० ॥ वासन्ति करयररवं, रिट्ठा वि य दिणयरं पलोएन्ता । भजन्ति महारुक्खा, पडन्ति सेलाण सिहराई ॥ ५१ ॥ विउलाई पि सराई, सहसा सोसं गयाइ सवाई । वुटुं च रुहिरवासं, गयणाओ तडयडारावं ॥ ५२ ॥ एए अन्ने य बहू, उप्पाया दारुणा समुप्पन्ना । देसाहिवस्स मरणं, साहेन्ति न एत्थ संदेहो ॥ ५३ ॥
नक्खत्तबलविमुक्को, गहेसु अञ्चन्तकुडिलवन्तेसु । वारिज्जन्तो वि तथा, अह कइ रणमुहं माणी ॥ ५४ ॥ हुए हैं। अब मेरी प्रीति कैसी ? (२८) कृपा करके मैं यदि रामको सीता सौंप दूं तो जिनका हृदय मुश्किलसे समझमें
आता है ऐसे लोग मुझे अशक्तिशाली समझेगे। (३६) इस संग्राममें सिंह और गरुड़की ध्वजावाले राम और लक्ष्मणको जीतकर बादमें परम वैभवके साथ उन्हें मैं सीता सौंपूँगा। (४) ऐसा करनेसे मेरे पौरुषकी हानि नहीं होगी और समस्त लोकमें निर्मल कीति होगी, अतः संग्राम करूँ। (४१) ऐसा कहकर महान ऋद्धिवाले रावगने अपने भवनकी ओर प्रस्थान किया। उस समय वह शत्रुजनित पराभवका स्मरण करने लगा। (४२) रुट वह तत्काल बोला कि सुग्रीव और अंगदको पकड़कर इस चन्द्रहास तलवारसे दोनोंको बीचमेंसे आवे कर दूंगा। (४३) पापी भामण्डलको पकड़कर और मजबूत जंजीरसे बाँधकर मैं आज उसे मुद्गरके प्रहारसे पोट पीटकर चैतन्यहीन बना दूंगा। (४४) काष्ठ-यंत्रमें जकड़े हुए हनुमानको इस तलवारसे फाड़ डालूँगा। राम और लक्ष्मगको छेड़ शेष सुभटोंको मार डालूँगा । (४५) हे मगधनरेश श्रेणिक ! हृदयमें इस तरह निश्चय किये हुए रावणको पराजयसूचः अनेक अपशकुन हुए। (४६) सूर्य आयुधके समान और आकारामण्डल कठोर वर्णवाला हो गया। रातके समय सम्पूर्ण चन्द्र मानों भयसे भाग गया। (४७) भूचाल हुआ। घोर बिजलियाँ गिरने लगीं। पूर्व दिशाको मानो चमकाते हों इस रह रक्तवर्णवाली उल्काएँ गिरने लगीं। (४८) मुँहमें ज्वालावाली शृगाली उत्तरदिशामें भयंकर रूपसे रोने लगी। जिनकी गर्दन काँप रही हैं ऐसे बड़े बड़े घोड़े कठोर और सूखी हिनहिनाहट करने लगे। (४६) अपनी सूढ़ोंसे जमीन पर प्रहार करते हुए हाथी भयंकर रूपसे चिंघाड़ने लगे। देवताओंकी प्रतिमाएँ भी आँसू बहाने लगीं। (५०) सूर्यको देखकर कौए भी कठोर 'का का' ध्वनि करने लगे। (५१) सब बड़े बड़े सरोवर अचानक सूख गये। आकाशमेंसे तड़तड़, आवाज करती हुई रुधिर की वर्षा हुई। (५२) ये तथा दूसरे भी बहुत-से दारुण उत्पात हुए। इसमें सन्देह नहीं कि ये सब राजाका मरण कहते थे । (५३) ग्रहोंके अत्यन्त कुटिल होनेसे नक्षत्रोंके बलसे रहित वह अभिमानी मना करने पर भी युद्धकी आकांक्षा रखता था । (५४) अपने यशके
१. तण-प्रत्यः ।
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