________________ (30) प्रयोग मिलता है। देव अर्थ के साथ गुरु अर्थ में भी परमेष्ठी शब्द का निर्देश प्राप्त होता है। बृहन्नील तन्त्र' में परमेष्ठी शब्द गुरु अर्थ को लिए हुए है। महाभारत में अजमीड़पुत्र के लिए भी परमेष्ठी पद का प्रयोग किया है। मारकण्डेय पुराण में तो जो परमस्थान में स्थित है, उसके लिए परमेष्ठी का उल्लेख है। ताण्ड्यब्राह्मण में भी प्रजापति रूप में उल्लेख मिलता है। उक्त सभी सन्दर्भो से यही निष्कर्ष निकलता है कि वैदिक साहित्य में 'परमेष्ठी' पद को परम-उच्चावस्था में संप्राप्त आत्म तत्त्व स्वीकार किया है। देव तत्त्व तथा गुरु तत्त्व दोनों के लिए परमेष्ठी पद सभी ने एकमत से स्वीकार किया है। जैन तथा जैनेतर दोनों में इसे स्थान दिया गया है। श्रमण परम्परा अब यह प्रश्न हमारे सामने उभरता है कि जैन धर्म में परमेष्ठी पद को जितनी ख्याति प्राप्त है, उतनी अन्य दर्शनों में नहीं। यहाँ तक कि जैन धर्म में पंच परमेष्ठी पद ही आराधना-साधना का केन्द्र बिन्दु है। परन्तु प्रचलित आगमों में इसका उल्लेख नहींवत् है। तब इसका प्रचलित रूप कैसे प्रवेश कर गया। वेदों में जबकि अनेकशः इसका प्रयोग होने पर भी यहाँ इस पद का प्रचलन दृष्टिगत नहीं होता। प्राचीनता की अपेक्षा से वेदों को उपलब्ध जैन आगमों से अधिक विद्वद्गणों ने मान्य किया है। वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण, पुराण आदि में भी इसका प्रयोग दृष्टिगत होता है। तब क्या यह मान्य किया जाय कि वेदों से यह पद आगमों में प्रयुक्त हुआ? अथवा वेदों का प्रभाव आगमों पर पड़ा? बौद्ध दर्शन और जैन दर्शन दोनों ही समकालीन मान्य किये गये हैं। बौद्ध त्रिपिटकों में भी इस पद का प्रयोग दृष्टिगत नहीं होता। आगम और त्रिपिटक दोनों में परमेष्ठी पद न होने से शंका होना स्वाभाविक है, क्या उस काल-उस समय में इस शब्द का प्रचलन नहीं था? जैन आगमों को पुस्तकारूढ़ करने का श्रेय देवर्द्धि गणि क्षमाश्रमण को है। आगम ज्ञान उससे पूर्व परम्परा से मौखिक ही होता था। गुरु से अपने शिष्य को श्रुत परम्परा से प्राप्त होता था। आधुनिक विद्वान यह मान्य करते हैं कि गुरु-शिष्य 1. बृहन्नील तन्त्र 2. पटल 2. महाभारत 1. 94. 31. 3. मारकण्डेय पुराण 76. 2. 4. ताण्डय ब्राह्मण 19. 14. 3.