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जन्म लेनेवाली कला भौतिक होते हुए भी प्राध्यात्मिक कोटिमें ही श्राती है, किन्तु उनसे हमारे पूर्व कालीन लोकजीवन एवं नृतत्त्व शास्त्रपर जो प्रभाव पड़ा है वह अध्ययनको मूल्यवान् सामग्री है। तात्पर्य कला में जीवनके उभयपक्षोंका अनुपम विकास स्पष्ट है ।
दृष्टिकोण
-सम्पन्न
किसी भी वस्तु विशेषको देखने-परखनेका प्रत्येक व्यक्तिका अपना दृष्टिकोण होता है । वस्तुका महत्त्व भी दृष्टिपरक होता है । सौन्दर्य दृष्टिहीन हृदय अत्युच्च कलाकृतिपर आकृष्ट नहीं होता । पर सौन्दर्य-दृष्टि-स् कलाकार टूटी-फूटी कलाकृति या खण्डहर पर न केवल मुग्ध ही हो जाता है, पितु उसकी गहन गवेषणामें अपना समस्त जीवन समर्पित कर देता है । जिस प्रकार दार्शनिक परिभाषामें नित्यानित्य पदार्थ विज्ञानकी सुदृढ़ परम्परा विकसित हुई है, ठीक उसी प्रकार सौन्दर्य-दर्शन के उपकरणों को लेकर विभिन्न परम्परात्रों का उद्भव हुआ है --होता रहता है । अमुक वस्तुमें ही सौन्दर्य है या अमुक प्रकारका उपादान ही सौन्दर्य व्यक्तीकरण के लिए उपयुक्त है ऐसा एकान्त नियम नहीं है । न कलाके व्यापक क्षेत्रमें ऐसे एकान्तवादकी कल्पना ही सम्भव है । वह तो अनेकान्तवादको सुदृढ़ शिलावर श्रावृत है । तात्त्विक दृष्टया सौन्दर्य वस्तुगत न होकर व्यक्तिगत है । हृदयहीन सौन्दर्यसम्पन्न वस्तुसे ग्रानन्द नहीं पा सकता और लौकिक दृष्टिसे उपेक्षित, खंडित सौन्दर्य - विहीन वस्तुसे भी दृष्टि सम्पन्न मानव श्रानन्दानुभव कर सकता है | श्रात्मस्थ सौन्दर्य, समुचित चित्तवृत्ति एवं अन्तर दृष्टिके विकास पर ही पार्थिव सौन्दर्य दर्शन निर्भर है । शिल्पी या कलाकारके अनवरत श्रम और उदात्त विचार परम्पराका मूल्यांकन हृदय ही कर सकता है न कि अर्थ या मस्तिष्क । जहाँ शिल्पीकी हृदयगत भावना सुकुमार रेखाओं में प्रवाहित होती है, वहाँ अर्थ गौण हो जाता है । कलाकृति देखते ही कला समीक्षक कलाकारकी सराहना करता है न कि उस लक्ष्मीपुत्र की, जिसने
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