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तीव्रतर होगी, उतनी ही निकटताका वह पाषाणोंसे सम्बन्ध स्थापित कर सकता है व विगत गौरवका रस वहीं चूता है। देह-गौणत्व ही देहीके रहस्यको प्राप्त कर सकता है । वहाँ चक्षुदर्शन महत्त्व नहीं रखता पर अन्तरदर्शनकी प्रधानता रहती है । "ज्योतिः पश्यति रूपाणि का संचार - साक्षात्कार खण्डहरोंमें होता है । वहाँ अन्तरमन तृप्त होकर नवीन भावनाओं को जन्म देता है। तभी तो वैभवकी झांकी होती है। वहाँका वैभव प्रेरक होता है ।
प्रसंगतः एक बातकी स्पष्टता श्रावश्यक है । वह यह कि खण्डहरोंका यथार्थ आनन्द और वास्तविक रहस्य प्राप्त करना है, व कलात्मकताके मौलिक भावों को समझना है तो श्राप जब कभी किसी कलात्मक खण्डहर में जायें तो एकाकी ही जायें। क्योंकि सामूहिक निरीक्षणसे खण्डहरोंका ऐतिहासिक व कालिक महत्त्व तो समझा जा सकता है, पर उसकी आत्माका ज्ञान नहीं होता, न सौन्दर्यका समुचित बोध ही होता है । खण्डहरोंकी अनुभूति वाणीकी अपेक्षा नहीं रखती, वह हृदयस्थ भावोंकी ब्रह्माण्डव्यापिनी कविता है जो चिरमौनमें ही अपना और सम्पूर्ण लोक-जीवनका सच्चा परिचय देती है । खण्डहर संस्कृति, प्रकृति और कलाका त्रिवेणी संगम है, जहाँ सत्यं शिवं सुन्दरम्का साक्षात्कार होता है । वह साक्षात्कार मस्तिष्कसे नहीं पर हृदयसे होता है । मस्तिष्क तथ्यतक सीमित रहता है जब हृदय सत्यको खोजता है । अनुभूतिका व्यक्तिकरण ही यदि कविता है तो मैं कहूँगा कि साहित्यिक भाषामें खण्डहर महाकाव्य है ।
अपने विहार में -- पाद भ्रमण में जहाँ मुझे खण्डहर मिल जाते हैं-- चाहें वे किसी भी सांस्कृतिक परम्परासे सम्बन्धित क्यों न हों -- वहाँ मेरी प्रसन्नताका वेग गतिशील हो जाता है । मेरा लेखनकार्य व चिन्तन वहींपर होता है । मुझे वहाँ प्रेरणा मिलती है । मानसिक शान्तिका अनुभव होता है । श्रध्यात्मिक भाव जागृत होते हैं । वहाँपर बिखरे हुए जीर्णशीर्ण- त्रुटित खंडित्व कलात्मक प्रतीकोंकी भावपूर्ण व सुकुमार रेखाओं में मुझे तो श्रात्मलक्षी
Aho ! Shrutgyanam