________________
- १८
-
इतना हमें यह समझनेके लिए पर्याप्त होना चाहिए कि जिस इतिहासकी सृष्टि करके हमारे देशने अपना ही नहीं मानव जातिका मस्तक ऊँचा किया था, उसे हम पैरों तले रौंदकर नष्ट कर रहे हैं । हम कहते हैं अनार्योंने, म्लेच्छोंने, मुसलमानोंने भारतीय मूर्तिकलाको उच्चतम अभिव्यक्तियोंको नष्ट कर डाला । अब जब हम यह बात कहें तो हमें पौनारका, कैलझरका, नागराका, पद्मपुरका, डोंगरगढ़ का भी ध्यान जाना चाहिए। हमें जसोके विगत महाराज और रोहगखेड़के संन्यासीको भी इसी सूचीमें याद कर लेना चाहिए। अपनी-अपनी शक्ति भर हम इन कला-कृतियोंको इन अज्ञानियों और असहिष्णुओंके हाथसे बचायें, इस तरह जैसे हम सम्पत्तिकी रक्षा करते हैं।
'खंडहरोंका वैभव' प्रकाशित करके भारतीय ज्ञानपीठ पाठकोंका ध्यान भारतीय पुरातत्त्वकी गरिमा और सुरक्षाकी आवश्यकताकी
ओर आकर्षित करना चाहता है । पुस्तकका विषय गम्भीर है, भाषा भी तदनुकूल गम्भीर मालूम देगी। पर, जो पढ़ने और समझनेकी चीज है उसे मन लगाकर पढ़ना ही चाहिए । राष्ट्रोंका निर्माण ज्ञानके प्रति इतना श्रम तो चाहता ही है।
पुरातत्त्वके विषयमें प्रत्येक लेखक सावधानीसे लिखनेका प्रयत्न करता है, पर विस्मृत अतीतको अंधकारसे निकालकर पढ़नेमें अनुमानके धुंधले प्रकाशमें काम चलाना पड़ता है। सतत अनुसन्धान ही निश्चयात्मक ज्ञान-ज्योति देता है। अनुसन्धान सम्बन्धी ऐसी पुस्तकोंको पाठकोंसे आदर मिले तो पुरातत्त्व के विद्वान अपने श्रमके लिए अधिकाधिक प्रेरित हों। 'ज्ञानपीठ' अपनी सेवाकी अंजलि चढ़ा रहा है।
लक्ष्मीचन्द्र जैन,
सम्पादक लोकोदय हिन्दी ग्रन्थमाला
Aho ! Shrutgyanam