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गया। बेचारे राजा साहब क्या करते ? उन्होंने हुक्म दिया---'कोई हर्ज नहीं यह बेकार मूर्तियाँ जो पड़ी हुई हैं, सब लाकर इस गढ़ेमें भर दो। मूर्तियाँ गढ़ेमें भर दी गई। जसोमें इतिहासकी उपयोगिता
है, यहाँ इतिहासको जस मिलता ! ७. यह बहुरीबंद है, जबलपुरसे ४२ मील उत्तरकी ओर। यहाँ
'खनुवादेव'का निवास है। खनुवादेवकी मूर्ति श्याम पाषाणकी है। खूब, १३ फुट ऊँची। भव्य ! निःसंदेह भव्य !! यहाँके हिंदू खनुवादेव'को इसलिए पूजते हैं कि वह काबूमें रहें और डरके मारे सुविधाएँ देते रहें । 'खनुवादेव' सुविधाएँ देते हैं, क्योंकि वह डरते हैं । वह डरते हैं क्योंकि वह हर आते-जातेके हाथ जूतोंसे 'पूजते' हैं। भगवान शान्तिनाथकी इस मूर्तिके पारखियोंने पुरातत्त्व विभागसे लिखापढ़ी की; 'अदोलन' भी किया; पर 'खनुवादेव'की यह पूजा बंद न हो सकी। पूजाके मामलेमें सरकार हस्तक्षेप नहीं करती ! हमारा राज्य स्वतंत्र है, हमारा राज्य 'सैक्यूलर' है; हम
इतिहास की रक्षा करते है ! लीजिए, एक और सुन लीजिए। प्रत्यक्ष लेखकके ही शब्दोंमें रोहणखेड़ (मध्यप्रदेश) की घटना :"मेरे सम्मुख ही एक संन्यासीने जो वहाँके बालाजी मंदिरमें रहते थे और मुझे पुरातन अवशेष बताने चले थे, लट्ठसे दक्षिणको खडगासन जैन-प्रतिमाके मस्तकको धड़से अलग कर प्रसन्न हुए।" जी हाँ, आपने ठीक पढ़ा है--"धड़से अलगकर प्रसन्न हुए !
यह रोहणखेड़ है । यहाँ संन्यासी प्रसन्न होता है, और इतिहास फूटफूटकर विलखता है ! इस प्रसंगका और आगे बढ़ना ठीक नहीं।
Aho! Shrutgyanam