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प्रथम प्रवचन
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में अनन्त तीर्थकर होंगे, पर कोई भी इस महामन्त्र की आदि नही जानता है । जिसकी आदि है नही, उसकी आदि जानी भी कैसे जा सकती है ? यह अनादि-निधन मन्त्र है |
इस महामन्त्र में व्यक्ति-विशेष की उपासना नहीं, किन्तु गुणों की उपासना की गई है। आत्मिक गुणों को विकसित करने वाले जो महापुरुष हैं, उनको नमस्कार किया गया है । यह महामन्त्र पन्थ, परम्परा व सम्प्रदाय की परिधि से मुक्त है । अतः मानवमात्र की एक अनमोल निधि है, और सबके लिए समान भाव से सदा स्मरणीय है ।
मूल :
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पंच हत्थुत्तरे होत्था । तं जहा - हत्थुत्तराहिं चुए चइत्ता गब्भं वक्कंते १ हत्थुत्त राहिं Toभाओ गब्र्भ साहरिए २ हत्थुत्तराहिं जाए३ हत्थुत्तराहिं मुण्डे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए४ हत्थुत्तराहिं अनंते अणुत्तरे निव्वाधार निरावरणे कसिणे पडिपुन्ने केवलवरनाणदंसणे समुपपन्ने५ साइणा परिनिव्वुए भयवं ॥ १ ॥
अर्थ - उस काल उस समय भगवान् महावीर के पाँच [ कल्याण ] हस्तोत्तर [ उत्तराफाल्गुनी ] नक्षत्र में हुए । हस्तोत्तर नक्षत्र में भगवान् स्वर्ग से व्यवकर गर्भ में आये (१) । हस्तोत्तर नक्षत्र में भगवान् एक गर्भ से दूसरे गर्भ में संहरण किए गए ( २ ) । हस्तोत्तर नक्षत्र में भगवान् जन्मे ( ३ ) | हस्तोत्तर नक्षत्र में मुण्डित होकर गृहत्याग कर अनगारत्व स्वीकार किया (४) । हस्तोत्तर नक्षत्र में भगवान् को अनन्त, अनुत्तर, अव्याबाध, निरावरण समग्र और परिपूर्ण श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवल दर्शन उत्पन्न हुआ ( ५ ) । तथा स्वाति नक्षत्र में भगवान् परिनिर्वाण को प्राप्त हुए ( ६ ) ||१||
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में तीन शब्द चिन्तनीय हैं। "समणे" "भगवं" और " महावीरे" । आचारांग और कल्पसूत्र में भगवान् महावीर के तीन नाम