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भगवान अषमदेव : प्रथम मिक्षावर
२६३ अमूल्य आभूषणों को और गज, तुरङ्ग, रथ, सिहासन आदि ग्रहण करने के लिए अभ्यर्थना करते, पर कोई भी भिक्षा के लिए नहीं कहता। भगवान उन वस्तुओ को बिना ग्रहण किए जब उल्टे पैरों लौट जाते तो वे नहीं समझ पाते कि भग वान् को किस वस्तु को आवश्यकता है ?
एक वर्ष पूर्ण हुआ । कुरुजनपदीय गजपुर के अधिपति बाहुबली के पुत्र सोमप्रभ राजा के पुत्र श्रेयांस ने स्वप्न देखा कि “सुमेरु पर्वत श्यामवर्ण का हो गया है। उसे मैंने अमृत कलश से अभिषिक्त कर पुनः चमकाया।"७3 सुबुद्धि नगर श्रेष्ठी ने भो स्वप्न देखा "सूर्य की हजार किरणें अपने स्थान से चलित हो रही थी कि श्रेयांम ने उन रश्मियों को पुनः सूर्य में संस्थापित कर दिया।" राजा सोमप्रभ ने स्वप्न देखा कि "एक महान् पुरुष शत्रुओं से युद्ध कर रहा है, श्रेयाँस ने उसे सहायता प्रदान की। उससे शत्रु का बल नष्ट हो गया ।" प्रातः होने पर सभी स्वप्न के सम्बन्ध में चिन्तन मनन करने लगे। चिन्तन का नवनीत निकला कि अवश्य ही श्रेयाँस को विशिष्ट लाभ होगा। ७४
भगवान् उसी दिन विचरण करते हुए गजपुर पधारे। चिरकाल के पश्चात् भगवान् को देख पौरजन आह्लादित हुए। श्रेयॉस को भी अत्यधिक प्रसन्नता हुई । भगवान् परिभ्रमण करते हुए श्रेयाँस के यहाँ पधारे । भगवान् के दर्शन और चिन्तन से पूर्वभव की स्मृति उद्बुद्ध हुई । स्वप्न का सही तथ्य परिज्ञात हुआ। उसने भक्ति-विभोर हृदय से ताजे आये हुए इक्षु रस के कलश को हाथ में ग्रहण कर भगवान के कर कमलों में रस प्रदान किया । भगवान् ने भी विशुद्ध आहार जानकर ग्रहण किया। इस प्रकार भगवान् श्री ऋषभदेव को एक संवत्सर के पश्चात् भिक्षा प्राप्त हुई और सर्वप्रथम इक्षु-रस का पान करने के कारण वे काश्यप नाम से भी विश्रुत हुए। ६
___ प्रस्तुत अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम वैशाख शुक्ला तृतीया को श्रेयाँस ने इक्षु रस का दान दिया. अतः वह तृतीया 'इक्षु-तृतीया' या 'अक्षय तृतीया' के रूप में प्रसिद्ध हुई । उस महान दान से तिथि भी अक्षय हो गई।