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नो कप्पइ वग्धारियबुठ्ठिकार्यसि गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा कप्पइ से अप्पबुट्ठिकार्यसि संतरुत्तरंसि गाहावइकुलं भत्ताए पाणाए वा निमित्तए वा पविसित्तए वा ॥२५६॥
__ अर्थ-वर्षावास में रहे हुए पात्रधारो भिक्षुक को अविच्छिन्न धारा (वग्घारिय वुट्टिकायंसि) से वर्षा बरस रही हो तब भोजन और पानी के लिए गृहपति के कुल की ओर जाना नहीं कल्पता, और प्रवेश करना भी नहीं कल्पता। कम वर्षा (अल्प वर्षा) बरस रही हो, तब अन्दर सूती वस्त्र और उसके ऊपर ऊनी वस्त्र ओढ़कर रजोहरण एव पात्र को प्रावरण से ढक कर भोजन के लिए अथवा पानी के लिए गृहपति के कुल की ओर निकलना और प्रवेश करना कल्पता है।
विवेचन-प्रस्तुत पाठ में जोरदार वर्षा-जब अविच्छिन्नधारा से वर्षा बरस रही हो उस समय भिक्षा के लिए जाने का निषेध किया है और आगे हलकी वर्षा में जाने की अनुमति दी है। पाठ में 'संत्तरुत्तरसि' शब्द आया है। यह शब्द आचारांग और उत्तराध्ययन' में भी मिलता है, पर वहाँ पर प्रकरण के अनुसार टीकाकारों ने दूसरा अर्थ किया है। यहाँ पर कल्पसूत्र के चूर्णिकार और टिप्पणकार ने अन्तर शब्द के तीन अर्थ किए हैं-(१) सूती वस्त्र, (२) रजोहरण, (३) और पात्र । तथा उत्तर शब्द के दो अर्थ किए हैं (१) कम्बल और (२) ऊपर ओढ़ने का उत्तरीय वस्त्र ।'६ सारांश यह है कि हलकी वर्षा में भीतर सूती वस्त्र और ऊपर ऊनी वस्त्र ओढ़कर भिक्षा के लिए जाय। ओधनियुक्ति, धर्मसंग्रह वृत्ति और योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्ति में प्रस्तुत परम्परा का उल्लेख किया है। किन्तु आचारांग में "तिव्वदोसीयं वासं वासमाणं पेहाए के द्वारा तेज वर्षा में जाने का निषेध किया है। दशवैकालिक में भी 'न चरेज्ज वासे वासंते" पाठ में स्पष्ट रूप से वर्षा बरसते समय भिक्षा के लिए जाने का निषेध है । अगस्त्यसिंह स्थविर२२ जिनदास महत्तर और आचार्य हरिभद्र २४ ने भी अपनी चूणि और टीका में बताया है कि भिक्षा