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थीण वा जाव चत्तारि पंच जोयणाइ गंतु पडियत्त ए, अंतरा वि से कप्पइ वत्थए, नो से कप्पइ तं रयणि तत्थेव उवायणावित्तए ॥२८॥
अर्थ-वर्षावास में रहे हुए निर्ग्रन्थ या निग्रन्थिनियों को ग्लान या रुग्ण (सेवा, औषधि आदि) के कारण यावत् चार या पांच योजन तक जाकर के पुनः लौटना कल्पता है । अथवा इतनी मर्यादा के अन्दर रहना भी कल्पता है, परन्तु जिस कार्य के लिए जिस दिन जहाँ पर गये हों, वहां का कार्य पूर्ण करने के पश्चात वहाँ से शीघ्र ही निकल जाना चाहिए। वहाँ पर रात्रि व्यतीत नहीं करनी चाहिए, अर्थात् रात्रि तो अपने स्थान पर ही आकर बितानी चाहिए।
- • उपसंहार मूल :
इच्चेयं संवच्छरियं थेरकप्पं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मं कारणं फासित्ता पालित्ता सोभित्ता तीरित्ता किट्टित्ता आराहित्ता आणाए अणुपालित्ता अत्थेगइया समणा णिग्गंथा तेणेव भवग्गहणेणं सिझति बुझति मुच्चंति परिनिव्वायंति सब्बदुक्खाणमंतंकरेंति, अत्थेगइया दोच्चेणं भवग्गहणणं सिझति जाव सव्वदुक्खाणमंतंकरेंति, अत्थेगइया तच्चेणं भवग्गहणेणं जाव अंत करेंति, सत्तट्ट भवग्गहणाइं नाइक्कमंति ॥२६॥
अर्थ इस प्रकार के इस स्थविरकल्प को सूत्र के कथनानुसार कल्पआचार की मर्यादा के अनुसार, धर्म मार्ग के कथनानुसार, यथार्थ रूप से शरीर के द्वारा स्पर्ण कर-आचरण करके, सम्यक् प्रकार से पालन कर, शुद्ध कर अथवा