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दश गणधरों का उल्लेख आव. नि. गा० २६०, आव० मल टीका (पत्र २०६) आदि ग्रन्थों में भी मिलता है । किंतु कल्पसूत्र सुबोधिका टोका (पत्र ३८१) में इसका स्पष्टीकरण किया है- "हो अल्पायुष्कत्त्वादिकारणानोक्तौ इति टिप्पनके व्याख्यातम् ।"
इसी प्रकार गणधर के नाम के सम्बन्ध में भी कुछ भेद है। कल्पसूत्र में 'शुभ' तथा पासनाह चरिय मे (पत्र २०२) शुभदत्त नाम आया है। समवायाग में सिर्फ 'दिन्न' शब्द हो है जबकि त्रिषष्टि० में 'आर्यदत्त।'
-सम्पादक ८. (क) कल्पसूत्र को संकलना के समय मे यह कालगणना की गई है। (ख) भगवान पाश्वनाथ को ऐतिहासिकता प्राय. निर्विवाद है। इस सम्बन्ध मे विशेष ऐतिहामिक
गवेषणा के लिए देखें१. चार तीर्थ कर-पं० सुखलाल जी सिंघवी २ जन साहित्य का इतिहास भाग १-० कैलाशचन्द्र शास्त्री
३ इण्डियन एन्टीक्वेरी जि० ६ पृ० १६०-डा० याकोबी के लेख ६. (क) समवायांग, सूत्र २४०१
(ख) समवायाग मूत्र १५७-११ (ग) अहं अरिष्टनेमि की ऐतिहासिकता वैदिक ग्रन्यो एव ऐतिहामिक विद्वानो की गवेषणा से मी सिद्ध होती है।
अथर्व वेद के माण्डूक्य, प्रश्न और मुण्डक अनिपदो मे अरिष्टनेमि का नाम आया है। महाभारत के अनुशासन पर्व अध्याय १४६ मे विष्णुसहस्रनाम मे दो स्थानो पर 'शूर, शौरिजिनेश्वर.' पद आया है--
__"अशोकस्तारणस्तारः शूरः शोरि जिनेश्वरः ।५०।"
"कालिनेमि महावीर शूरः शौरि जिनेश्वरः।" ८२॥ छांदोग्य उपनिषद् में देवकी पुत्र कृष्ण के उल्लेख से व्यक्त होता है कि उन्होंने घोर अंगरिस से अहिंसा और नीति का उपदेश ग्रहण किया। श्री धर्मानन्द कौशाम्बी (भा० म० अ० पृ० ३८) के अनुसार ये घोर अंगरिस नमिनाथ ही थे, क्योकि नेमिनाथ श्रीकृष्ण के धर्मगुरु थे यह प्राचीन जैन ग्रन्थो से प्रमाणित होता है (विशेष विवरण के लिए देखें- जैन
साहित्य का इतिहास पूर्व पाठिका, प० कैलाशचन्द्र जैन १० १७०) १० सोग्यिपुरम्मि नयरे, आसि राया महिडिढाए ।
समुद्दविजए नाम, रायलक्खण संजुरा । तस्स भज्जा सिवा नाम तीसे पुत्तो महायसो। भगवं अग्ठ्नेिमि ति, लोगनाहे दभीमरे ।
- उत्तराध्ययन २२।३-४ ११. अह सो वि रायपुत्तो, समुदृविजयंगओ।
-उत्तराध्ययन २२०३६ १२. एवं सच्चनेमी, नवरं ममुद्दविजये पिया सिवा माता। एव दढनेमी वि सव्वे एगगमा।
--अन्तकृतदशा, वर्ग ४,०९-१०