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आदानभाउमात्र निक्षेपणा समिति
जाते हैं। यह ज्ञान होने के बाद देखिए 'समिति'।
वापस चला भी जाता है। तथा आभोगिक-अवधिज्ञान का एक वह प्रकार
अधिक विशुद्ध नहीं होता है। जो उत्पन्न होने के बाद कभी एषणासमिति-देखिए 'समिति'। विनष्ट नहीं होता, केवल ज्ञान कर्म- आत्मा के मूल गुणों को आच्छाप्राप्त होने तक रहने वाला
दित करने वाली सूक्ष्म पौद्ज्ञान।
गलिक शक्ति । इनके माठ भेद आयाम-चावल आदि का धोवन (ओसा
होने से अष्टकर्म तथा 'घाती मण)।
कर्म' 'एवं अघाती कर्म' के नाम आयूष्य कर्म-देखिए 'कर्म'
से भी प्रसिद्ध है।
आठ भेद-(1) मानावरण-ज्ञान आरा- आरा-चक्र । जिस प्रकार रथ
शक्ति को आवरण अर्थात् ढकने गाड़ी आदि के चक्र-चक्के लगे होते हैं, वैसे ही काल रूपी रथ
वाला कर्म। (२) बर्शनावरणके भी चक्र (आरा) होते हैं ।
दर्शन (सामान्यबोध) शक्ति को ऐसे बारह आरा का एक काल
ढकने वाला। (३) मोहनीय
आत्मस्वरूप के अवबोध को चक्र होता है। जो बीस कोडाकोड़ी सागरोपम का होता है।
रोककर मोह में फंसाने वाला। काल चक्र के छः आरा अवस
(४) असराय-दान, लाभ, भोग पिणी काल एवं छ आरा उत्स
आदि में विघ्न उपस्थित करने पिणी काल कहलाता है।
वाला (१) वेदनोय-सुख दुःख का ईर्या समिति देखिए 'समिति' ।
निमित्त बनने वाला i(6) प्रायुष्य
--जीवन धारण का निमिस । उपपात-- नरक एवं देवयोनि में जन्म ग्रहण
(७) नामकर्म-गति, स्थिति, यश __ करने को उपपात कहते हैं।
अपयश आदि का निमित्त । (८) उष्ण-विकट-अग्नि पर उबला हुआ पानी। गोत्र-उच्चता, नीचता आदि का उत्सपिणी-कालचक्र का अर्ध भाग। जिस
निमित्त। समय (काल) मे भूमि, वृक्ष
इनमें प्रथम चार कर्म आदि का स्वारस्य एवं मनुष्यों
आत्मा के मूल स्वरूप का घात के पुरुषार्थ आदि गुण निरन्तर
करने वाले होने से घाती कर्म वृद्धिंगत होते रहते हैं, वह
कहलाते हैं। शेष चार भवाती समय । कालचक्र का उत्कर्षयुग। उत्स्वेदिम-आटा आदि का धोवन।
कल्प- नीत, आचार, मर्यादा, विधि भानुमति - मनःपर्यव ज्ञान का एक भेद ।
और समाचारी। कल्प के दस इस ज्ञान से मन के भाव जाने
भेद हैं (१) आचेलक्य, (२)