Book Title: Kalpasutra
Author(s): Devendramuni
Publisher: Amar Jain Agam Shodh Samsthan

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Page 467
________________ ( ६ ) केवल ज्ञान पर्यन्त स्थायी यतना पूर्वक चलना । (२) भाषा रहता है। समिति-विवेक व यतना पूर्वक विचार भूमि--शौच आदि के लिए बाहर बोलना। (३) ऐषणा समितिजाना। खाने पीने, पहनने आदि कार्य विहार भूमि- स्वाध्याय आदि के लिए के लिए शुद्ध, निर्दोष वस्तु को एकान्त स्थान में जाना। यतनापूर्वक ग्रहण (याचना) वृष्टिकाय--वर्षा, दूदे या फुहारे । करना। (४) मादान मार मात्र निक्षेपणा समिति - अपने वस्त्र, वेदनीय कर्म-देखिए - 'कर्म' । पात्र आदि उपकरणों को विवेक वैमानिक देव-विमान में उत्पन्न होने वाली पूर्वक उठाना व विवेक पूर्वक उत्तम देव जाति । रखना। (५) पारिष्ठापनिका वैक्रियलब्धि-शरीर को छोटे बड़े आदि समिति-फेंकने व छोड़ने योग्य विभिन्न रूपों में बदलने वाली वस्तु को उचित स्थान पर शक्ति विशेष। देव एवं नारक विवेक पूर्वक फेंकना व छोड़ना । में जन्मजात होती है, मनुष्य स्वादिम-मुखवास आदि के लिए स्वाद आदि में योग, तप आदि द्वारा वाले खाद्य पदार्थ । प्राप्त की जाती है। सौवीर-कांजी। बैंक्रियसमुद्घात--शरीर को तथा शरीर संखडी (सुखंडी)-मिष्टान्न-पक्वान्न, तथा परमाणुओ को विशेष रूपों में मिष्टान्न आदि जहाँ बनते हो, वह बदलने के लिए को जाने वाली स्थान । भोज आदि का स्थल । विशेष प्रक्रिया। संधिपाल-राज्यों के बीच विग्रह आदि श्रुतकेवली-चौदह पूर्व के ज्ञाता श्रमण । समस्याओं को सुलझाकर संधिसागरोपम---असख्य पल्योपम जितना काल कराने वाला, एवं संधि को सागर कहलाता है, सागर से रक्षा का जिम्मेदार अधिकारी उपमित किया जाने योग्य राजदूत। कान-सागरोपम। संस्वविम-वृक्ष के पत्ते प्रादि को उबाल समिति-श्रमण जीवन में सम्यक प्रकार कर उन पर छिटका जाने वाला (विवेक पूर्वक) से गति करने पानी। का नाम समिति है। श्रमण शुद्ध विकट (क)-देखिए 'उष्ण विकट । जीवन की समस्त प्रवृत्तियों को हरिणेगमेसी-देवराज इन्द्र का एक पाँच रूप में विभक्त कर के 'पच सेनापति, तथा विशेष कार्यदक्ष समिति' का रूप दिया है। दूत, जो गर्भ परिवर्तन आदि की (१) तिमिति - सावधानी, व कला में प्रवीण होता है

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