Book Title: Kalpasutra
Author(s): Devendramuni
Publisher: Amar Jain Agam Shodh Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 438
________________ Yo जो तोलइ तइलोक्कं बलेण का तस्स इह गणणा ॥ कहतसत्तिजुत्ता जिणा हर्बतित्ति वयणमवि अम्हे । पतिज्जिसामो पहु । जइ न तुमं ठासि स्वणमेक्कं ॥ - महावीर चरियं, प्रस्ताव ८ गा० से ४ पृ० ३३८ । १ विह कालेऽवि । ३६३. अह जयगुरुणा भणियं सुरिद ! तीया इति नो भूयं न भविस्सद्द न हवइ नूणं इमं कज्ज ॥ ज आउ कम्म विगमेsवि कोवि अच्छेज्ज समयमेत्तमवि । अच्च ताणं तविसिसत्तिपब्भार जुत्तोऽवि ॥ अवि जोडिज्जइ सयखंडियंपि वयरागरुन्भवं रयणं । परिसडियमाउदलिय न उ तीरइ कहवि संघडिउ ॥ ता जइ आच्च तमभूयमत्थमम्हे न किं एत्तिएण नाणं तसत्तिणी ? मुयसु साहिमो एय । ता मोहं ॥ - महावीर चरिय, प्र० ८ गा० ५ से ८ पृ० ३३८ ३६४. (क) कु: भूमि तस्यां तिष्ठनीति कुन्पू, अणुं सरीरंगं घरेति अणुं धरी । - कल्पचूर्ण, सू० १३१ (ख) तं रयणि 'कु' अणुद्धरो नाम' ति कुः - भूमिस्तस्या तिष्ठतीति कुन्यूः अणु सरीर धरेइ ति अणुधरी। -कल्प सूत्र टिप्पण सू० १३१ ३६५. (क) कल्पसूत्र चूर्णि सू० १४५ पृ० १०४ (ख) कल्पसूत्र टिप्पण सू० १४५

Loading...

Page Navigation
1 ... 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474