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६२. 'क्षौमिलिया' शाखा की उत्पत्ति पूर्व बंगाल के क्षौमिल नगर से हुई थी जो वर्तमान मे 'कोमिला'
नाम से प्रसिद्ध है। ६३. मानवगण की ये तीन शाखायें क्रमशः काश्यप, गौतम और वासिष्ठ गोत्रो से विश्रुत हुई है और
चतुर्थ शाखा 'सारठ्ठिया' की उत्पत्ति सोरठ नगर से हुई है, जो वर्तमान में मधुवनी से उत्तर-पश्चिम
में आठ मील पर 'सोरठ' नाम से अवस्थित है। ६४. कोटिकगण की उत्पत्ति सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध स्थविरो से हुई है। आर्य सुस्थित गृहस्थाश्रम
में कोटिवर्ष नगर के निवासी थे और सुप्रतिबुद्ध काकन्दो नगरी के। अतः इन स्थविरों के अपर नाम क्रमशः कोटिक और काकन्दक भी थे। इन स्थविरो से प्रादुर्भूत होने वाला गण 'कोटिक'
नाम से विश्रुत हुआ। १५. 'उच्चानागरी' शाखा की उत्पत्ति 'उच्चानगरी' से हुई है। उच्चानगरी' ही वर्तमान मे 'बुलन्द
शहर' के नाम से विख्यात है। ६६. ममिका शाखा की उत्पत्ति चित्तोड के सन्निकटवर्ती मध्यमिका नगरी मे हुई थी। ६७. बंभलिज्जिय' कुल के स्थान पर मथुरा के शिलालेखों मे ब्रह्मदासिका नाम उपलब्ध होता है।
कल्याणविजय गणि के अभिमतानुसार यह नाम शुद्ध है-"कोटिक गण' के जन्मदाता सुस्थित - सुप्रतिबुद्ध के गुरुभ्राता 'ब्रह्मगणा का पूरा नाम 'ब्रह्मदास गणि' हो और उन्ही के नाम से ब्रह्मदासिक कुल प्रसिद्ध हुआ हो।"
पट्टावली पराग पृ० ४१-४२ १८. वाणिज्य कूल के स्थान पर मथुरा के शिलालेखों में 'ठाणियातो' नाम उत्कीर्ण है। कल्याण विजय जी इस नाम को ठीक मानते हैं।
देख-पट्टावली पगग पृ० ४२ RE. (क) कल्ासुबोधिका टीका पृ० ५५४, माराभाई मणिलाल नबाब
(ख) जैन परम्परानो इतिहास, भा० १, पृ० २२०-२२१ । १०० ० सो पइटाणं आगतो। तत्थ य सातवाहणी राया सावगो। तेण समणप्रयणओच्छणो पवत्ति तो,
अतेउरं च भणियं-अमावसाए उववासं काउ "अमिमादीसु उववास कातुः" इति पाठान्तरम् । पारणए साधूणं भिक्खं दाउ पारिज्जह । अध पज्जोसमणादिवसे आसण्णीभूते अज्जकालएण सातवाहणो भणितो-भड्वयजोण्हस्स पचमीए पज्जोमावणा। रण्णा भणितो-सहि वसं मम इंदो अणु जायचो होहिति तो 'ण पज्जुवासिताणि चेतियाणि साधुणो य भविस्सं ति" ति कातु तो छट्ठीए पज्जोमवणा भवतु। आयरिएण भणियं-न वट्टति अतिकामेतु। रण्णा भणित-तो चउत्थीए भवतु......"आयरिएण भणितं एवं होउ, त्ति चउत्थीए कता पज्जोसवणा। एवं चउत्थी वि जाता कारिणता।
-पज्जोसमणाक.प्पणिज्जुती पृ० ८६ (क) श्री निशीथसूत्र चूणि० उ० १०
(ख) भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति १०१. तुम्बवन के परिचय के लिए देखिए-मुनि श्री हजारीमल स्मृतिमथ पृ० ६७७ १०२. (क) आवश्यक चूगि०,प्रथम भा० ५० ३६० (ख) अवंती जणवए तुम्बवणसग्निवेसे धणगिरी नाम इन्भपुतो।
-आवश्यक हारिभद्रीय टीका प्र. भा०प० २८६-१