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चिद्वित्तए, अस्थि या इत्थ केइ पंचमए खुहुए वा खुडिया वा अन्नसिं वा संलोए सपडिदुवारे एवण्हं कप्पइ एगयओ चिद्वित्तए ॥२५६॥
अर्थ-वर्षावास में रहे हुए और भिक्षा लेने की वृत्ति से गृहस्थ के कुल में प्रवेश किये हुए निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थिनियों को जब रह रहकर अन्तरसहित वर्षा गिर रही हो तब उन्हें या तो बगीचे के नीचे, या उपाश्रय के नीचे, यावत् चला जाना कल्पता है।
(१) वहाँ पर उस अकेले साधु को अकेली साध्वी के साथ सम्मिलित रहना नहीं कल्पता । (२) वहां पर उस अकेले निर्ग्रन्थ को दो निम्रन्थिनियों के साथ सम्मिलित रहना नहीं कल्पता । (३) वहाँ पर दो निर्ग्रन्थों को अकेली निर्गन्थिनी के साथ सम्मिलित रहना नहीं कल्पता । (४) वहाँ पर दो निर्ग्रन्थों को दो निम्रन्थिनियों के साथ सम्मिलित रहना नहीं कल्पता।
वहाँ पर किसी पांचवें की साक्षी रहनी चाहिए । भले ही वह क्षुल्लक हो या क्षुल्लिका हो, अथवा दूसरे उन्हें देख सकते हों, दूसरों की दृष्टि में वे आ सकते हो, अथवा घर के चारों ओर के द्वार खुले हुए हों तो इस प्रकार उनको अकेला रहना कल्पता है । मल:
वासावासं पजोसवियाणं निग्गथस्स गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठस्स निगिज्झिय बुठिकाए निवएजा कप्पइ से अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा उवागच्छित्तए, तत्थ नो कप्पइ एगस्स निग्गंथस्स एगाए य अगारीए एगयओ चित्तिए, एवं चउभंगो, अत्थि या इत्थ केइ पंचमए थेरे वो थेरिया वा अन्ने सि वा संलोते सपडिदुवारे एवं कप्पइ एगयओ चित्तिए ॥२६०॥