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समाचारी : मिक्षावरी कल्प
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मर्थ-वर्षावास में रहे हुए और भिक्षा लेने की वृत्ति से गृहस्थ के कुल में प्रवेश किए हुए निर्ग्रन्थ को जब रह रहकर सान्तर वर्षा गिर रही हो, तब उसे या तो बगीचे की छाया में, या उपाश्रय के नीचे जाना कल्पता है। वहां पर अकेले निर्ग्रन्थ को अकेली महिला के साथ सम्मिलित रहना नही कल्पता । यहां पर भी सम्मिलित नहीं रहने के सम्बन्ध में पूर्व सूत्र की तरह चार भंग समझ लेने चाहिए।
वहाँ पर पांचवा कोई भी स्थविर या स्थविरा होनी चाहिए। अथवा दूसरों की दृष्टि से देखे जा सकें ऐसा होना चाहिए, अथवा घर के चारों तरफ के द्वार खुले रहने चाहिए। इस प्रकार उन्हे अकेला रहना कल्पता है।
मूल :
एवं चेव निग्गंथीए अगारस्स य भाणियव्वं ॥२६१॥
अर्थ और इसी प्रकार अकेली निर्गन्थिनी और अकेले गृहस्थ के सम्मिलित नही रहने के सम्बन्ध में चार भंग समझने चाहिए।
विवेचन-प्रस्तुत विधान व्यवहार शुद्धि और ब्रह्मचर्य की विशुद्धि के लिए किया गया है। ब्रह्मचारी साधक को सतत जागरूक रहने की आवश्यकता है। जरा-सी असावधानी भी साधक को पथ से विचलित कर सकती है, अतः शास्त्रकार ने सजग रहने की प्रेरणा दी है । दूसरी बात साधक स्वयं में भले ही जागृत हो किन्तु अगर व्यवहार अशुद्ध हो तो ऐसे स्थान में भी नहीं रहना चाहिए । इसीलिए कहा गया है-'यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्ध नाचरणीयं न करणीयम् ।'
मूल :
वासावासं पजोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अपरिन्नएणं अपरिग्नयस्स अट्ठाए असणं वा ४