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अनुमति न दें तो भिक्षु को आहार के लिए अथवा पानी के लिए गृहस्थ के कुल की ओर निकलना और उसमें प्रवेश करना नहीं कल्पता ।
प्रश्न - हे भगवन् ! आप ऐसा क्यों कहते हैं ?
उत्तर - अनुमति देने में अथवा न देने में आचार्य प्रत्यवाय (विघ्न) आदि को जानते होते हैं ।
मूल :
एवं विहारभूमिं वा वियारभूमिं वा अन्नं वा जं किं पि पयणं, एवं गामाणुगामं दुइज्जित्तए || २७५॥
अर्थ - इस प्रकार विहारभूमि की ओर जाने के लिए, अथवा विचार भूमि की ओर जाने के लिए, अथवा अन्य किसी भी प्रयोजन के लिए या एक गाँव से दूसरे गाँव जाना आदि सभी प्रवृत्तियों के लिए इसी प्रकार अनुमति प्राप्त करना चाहिए ।
मूल :
वासावासं पज्जोसविए भिक्खु य इच्छिज्जा अन्नयरिं विग आहारितए नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेययं वा जं वा पुरओ कट्टु विहरइ, कप्पड़ से आपुच्छित्ता णं तं चेव-इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाए समाणे अन्नयरिं विगई आहारितए, तं एवइयं वा एवतिक्खुत्तो वा, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अन्नयरिं विगई आहारितए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अन्नयरिं विगई आहरित्तए, से किमाहु ते !! आर्यारया पच्चवायं जाणंति || २७६॥
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अर्थ - वर्षावास में रहा हुआ भिक्षु किसी भी एक विगय को खाने की इच्छा करे तो आचार्य से अथवा उपाध्याय से, स्थविर से, प्रवर्तक से, गणि से,