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करे तो उस सम्बन्ध में भी पूर्ववत् ही कहना चाहिए । अर्थात् गुरुजनों की आज्ञा प्राप्त करके ही तप करना चाहिए । मुल:
वासवासं पज्जोसविए भिक्खु य इच्छिज्जा अपच्छिममारणंतियसंलेहणाजूसणाभूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगए कालं अणवकखमाणे विहरत्तए वा निक्खमित्तएवा पविसित्तए वा, असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा आहारित्तए वा, उच्चारपासवणं वा परिहावित्तए सज्झायं वा करित्तए धम्मजागरियं वा जागरित्तए नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता तं चेव ॥२७६ ।।
अर्थ-वर्षावास में रहे हुए भिक्षु को सबसे अन्तिम, मारणान्तिक संलेखना का आश्रय लेकर के उसके द्वारा शरीर को खपाने की वृत्ति से आहार पानी का त्याग करके, पादपोपगत (वृक्ष की तरह निश्चल) होकर मृत्यु की अभिलाषा नहीं रखते हुए विचरण करने को इच्छा करे और संलेखना की दृष्टि से गृहस्थ के कुल की ओर निकलने की और उसमें प्रवेश करने की इच्छा करे अथवा अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार की इच्छा करे अथवा मलसूत्र के परिस्थापन की इच्छा करे अथवा स्वाध्याय करने की इच्छा करे अथवा धर्म जागरण के साथ जागने की इच्छा करे तो यह सभी प्रवृत्ति भी आचार्य आदि से बिना पूछे करनी नहीं कल्पती है। इन सभी प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में पूर्व प्रमाण ही कहना चाहिए । मूल :
__ वासावासं पज्जोसविए भिक्खु य इच्छिज्जा वत्थं वा पडिग्गरं वा कंबलं वा पायपुछणं वा अन्नयरिं वा उवहिं आयावित्तए वा पयावित्तए वा, नो से कप्पइ एगंवा अणेगं वा अपडिण्णवित्ता गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा