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कल्प जाव पडिग्गाहित्तए, से किमाहु भंते ! इच्छा परो अपडिन्नते भुजिजा, इच्छा परो न भुजिज्जा ॥२६२॥
___ अर्थ-वर्षावास मे रहे हुए निर्ग्रन्थ को या निर्ग्रन्थिनियों को दूसरे किसी के कहे बिना या दूसरे को सूचना किये बिना उनके लिए अशन, पान, खादिम, स्वादिम चारों प्रकार का आहार लाना नहीं कल्पता ।
प्रश्न-हे भगवन् ! इस प्रकार क्यों कहते हैं ?
उत्तर-हे शिष्य ! दूसरे के द्वारा बिना कहे हुए या दूसरे के द्वारा बिना सूचित किये हुए, लाया गया आहार आदि यदि उसकी इच्छा होगी तो वह खायेगा, यदि इच्छा न होगी तो वह नही खायेगा । अर्थात् दूसरे के लिए बिना पूछे या दूसरे के बिना कहे आहार आदि नहीं लाना चाहिए । क्योंकि बिना पूछे लाया गया आहार यदि उसको इच्छा नहीं है और बिना इच्छा के वह खाता है तो या तो उसे रोग हो जायगा, और यदि वह नहीं खाएगा तो परिष्ठापनदोष लगेगा। मल:
वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा उदउल्लेण वा ससणिद्वेण वा कारणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारित्तए ॥२६३॥
____ अर्थ-वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थ या निम्र न्थिनियों को उनके शरीर पर से पानी गिरता हो या उनका शरीर आर्द्र हो तो अशन, पान, खादिम और स्वादिम को खाना नहीं कल्पता।। मूल :
से किमाहु भंते ! सत्त सिणेहायतणा, तं जहा-पाणी, पाणीलेहा, नहा, नहसिहा, भमुहा, अहरोहा, उत्तरोहा । अह