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स्थविरावली : मार्यजम्यू
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वीर संवत् १३ में सुधर्मास्वामी के केवलज्ञानी होने के पश्चात् उनके पट्ट पर आसीन हुए । आठ वर्ष तक संघ का कुशल नेतृत्व करने के पश्चात् वीर संवत् बोस में केवल ज्ञान प्राप्त किया और वीर संवत् चौंसठ में अस्सी वर्ष की आयु पूर्ण कर मथुरा नगरी में निर्वाण प्राप्त किया ।
आज जो आगम- साहित्य उपलब्ध है उसका बहुत सारा श्रेय जम्बूस्वामी को ही है । उनकी प्रबल जिज्ञासा से ही सुधर्मा स्वामी ने आगम की वाचना दी । जम्बूस्वामी इस अवसर्पिणी कालचक्र के अन्तिम केवली थे । उनके पश्चात् कोई भी मोक्ष नहीं गया । उनके मोक्ष पधारने के पश्चात् निम्न दस बातें विच्छिन्न हो गई :
(१) मनः पर्यबज्ञान, (२) परमावधिज्ञान, (३) पुलाक लब्धि, (४) आहारक शरीर, (५) क्षपक श्रेणी, (६) उपशम श्रेणी, (७) जिनकल्प, ( ८ ) संयम त्रिक ( परिहार विशुद्ध चारित्र, सूक्ष्मसांपराय चारित्र, यथाख्यात चारित्र), (६) केवल ज्ञान (१०) और सिद्धपद | B
• आर्य प्रभव स्वामी
आर्य प्रभव विन्ध्याचल के सन्निकटवर्ती जयपुर के निवासी थे । पिता का नाम विन्ध्य राजा था। एक बार किसी कारणवश पिता से अनबन हो जाने के कारण अपने पांच सौ साथियों के साथ राज्य को छोड़कर निकल पड़े । अपने साथियों के साथ इधर उधर डाका डालना और लूट मार करना, इस प्रवृत्ति से प्रभव राजकुमार दस्युराज के रूप में विख्यात हो गए। उनके नाम से लोग कांपने लगे । जिस दिन जम्बूकुमार का विवाह था, उसी दिन वहां डाका डालने के लिए प्रभव उनके घर पर पहुँचे । प्रभव के पास दो विद्याएँ थी, तालोद्घाटनी ( ताला तोड़ने की ) एवं अवस्वापिनी ( नींद दिलाने की) उनकी विद्या के प्रभाव से घर के सभी सदस्य सो गए, पर, ऊपर जम्बूकुमार अपनी नवपरिणीता पत्नियों के साथ वैराग्यचर्चा कर रहे थे । प्रभव वहां पहुँचा, छुपकर सुनने लगा, वैराग्य रस से छलछलाते हुए उपदेश को सुनकर प्रभव ससार से विरक्त हो गये । अपने साथियों के साथ ही उन्होंने तीस वर्ष