________________
erferent : मार्य स्थूलभद्र
२८३
निकला । उसकी ये चार शाखाएं इस प्रकार कही जाती है। जैसे - (१) कोसं(२) सोईतिया ( शुक्तिमतीया)
७८
(३) कोडंबाणी "
बिया ( कौशाम्बिका) ( ४ ) चन्दनागरी । "
P
विवेचन - आर्य स्थूलभद्र जैन जगत् के वे उज्ज्वल नक्षत्र हैं, जिनकी जीवन-प्रभा से आज भी जन जीवन आलोकित हैं। मगलाचरण में तृतीय मंगल के रूप में उनका स्मरण किया जाता है ।
ये मगध की राजधानी पाटलीपुत्र के निवासी थे । इनके पिता का नाम शकडाल था, जो नन्द साम्राज्य के महामन्त्री थे । वे विलक्षण प्रतिभा के धनी और राजनीतिज्ञ थे । जब तक वे विद्यमान रहे तब तक नन्द साम्राज्य प्रतिदिन विकास करता रहा ।
।
स्थूलभद्र के लघुभ्राता श्रेयक थे यक्षा आदि सात भगिनियाँ थीं । स्थूलभद्र जब यौवन की चौखट पर पहुँचे तब कोशागणिका ( युग की सुन्दरी गणिका तथा नर्तकी) के रूप- जाल में फंस गए । महापण्डित वररुचि के षड़यंत्र से श्रेय ने पिता को मार दिया । पिता के अमात्यपद को ग्रहण करने के लिए स्थूलभद्र से निवेदन किया गया । किन्तु पिता की मृत्यु से उन्हें वैराग्य हो गया उन्होने आचार्य सभूतिविजय से प्रव्रज्या ग्रहण को ।
प्रथम वर्षावास का समय आया । अन्य साथी मुनियों में से एक ने सिंह गुफा पर चातुर्मास रहने की आज्ञा मांगी। दूसरे ने दृष्टि विष सर्प की बाँबी पर, तीसरे ने कुएं के कोठे पर, और स्थूलिभद्र ने कोशा की चित्रशाला में । गुरुआज्ञा लेकर स्थूलभद्र कोशा के भवन पर पहुँचे । चारों ओर वासना का वातावरण, कोशा वेश्या के हाव भाव और विभाव से भी स्थूलिभद्र चलित न हुए । अन्त में स्थूलभद्र के त्यागमय उपदेश से वह श्राविका बन गई ।
वर्षावास पूर्ण होने पर सभी शिष्य गुरु के चरणों में लौटे, । तीनों का 'दुष्करकारक' तपस्वी के रूप में स्वागत किया गया । स्थूलिभद्र के लौटने पर गुरु सात-आठ कदम सामने गये और 'दुष्कर - दुष्कर कारक तपस्वी' कहकर स्वागत किया । सिंहगुफा बासी मुनि यह देखकर क्षुब्ध हुआ । आचार्य ने ब्रह्मचर्य की दुष्करता पर प्रकाश डाला, पर उसका क्षोभ शान्त नहीं हुआ ।