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सकता है ? भगवान् सीमन्धर स्वामी ने आचार्य कालक का नाम बताया । वे सीधे ही कालकाचार्य के पास आए। जैसा भगवान् ने कहा था वैसा ही वर्णन सुनकर अत्यन्त आह्लादित हुए ।
आपका जन्म वीर संवत् २८० में हुआ, वीर सं० ३०० में दीक्षा ली, ३३५ में युगप्रधान आचार्य पद पर आसीन हुए, और ३७६ में स्वर्गारोहण हुआ ।
(२) द्वितीय आचार्य कालक भी इन्हीं के सन्निकटवर्ती हैं । ये धारा नगरी के निवासी थे । इनके पिता का नाम राजा वीरसिंह और माता का नाम सुरसुन्दरो था । इनको एक छोटी बहिन थी, जिसका नाम सरस्वती था । वह अत्यन्त रूपवती थी । दोनों ने ही गुणाकर सूरि के पास प्रव्रज्या ग्रहण की । एक बार साध्वी सरस्वती के रूप पर मुग्ध होकर उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल ने उसका अपहरण किया । आचार्य कालक को जब यह वृत्त ज्ञात हुआ तो वे अत्यन्त क्रुद्ध हुए । उन्होंने शक राजाओं से मिलकर गर्दभिल्ल का साम्राज्य नष्ट भ्रष्ट किया । कहा जाता है कि वे सिंधु सरिता को पार कर फारस (ईरान) तथा वर्मा और सुमात्रा भी गए । इन्होंने ही भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी को पर्युषण पर्व की आराधना की थी । वह प्रसंग इस प्रकार है
एक बार आचार्य का वर्षावास दक्षिण के प्रतिष्ठानपुर में था । वहाँ का राजा सातवाहन जैन धर्मावलम्बी था । उस राज्य में भाद्रपद शुक्लापंचमी को इन्द्रपर्व मनाया जाता था जिसमें राजा से लेकर रंक तक सभी को सम्मि लित होना अनिवार्य माना जाता था । राजा ने आचार्यकालक से निवेदन किया -- मुझे भी संवत्सरी महापर्व की आराधना करनी है एतदर्थ संवत्सरी महापर्व छट्ट को मनाया जाय तो श्रेयस्कर है। आचार्य ने कहा--उस दिन का उल्लंघन कदापि नहीं किया जा सकता। राजा के आग्रह वश आचार्य ने कारण से चतुर्थी को संवत्सरी पर्व मनाया । यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि आचार्य ने अपवाद रूप में चतुर्थी को सम्वत्सरी पर्व की आराधना की है, न कि उत्सर्ग- १०० सामान्य स्थिति के रूप में ।