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१२० मूल :
जहा णं अम्हं आयरियउवज्झाया वासाणं जाव पज्जोसर्वेति तहा णं अम्हे वि अज्जो! वासाणं सवीसइराए मासे विइक ते वासावासं पज्जोसवेमो । अंतरा वि य से कप्पइ पज्जो. सवित्ताए नो से कप्पइ तं रयणि उवायणावित्तए ॥२३१॥
- अर्थ जैसे हमारे आचार्य, उपाध्याय, यावत् वर्षावास रइते हैं, वैसे ही हम भी वर्षाऋतु का बीस रात्रि सहित एक मास व्यतीत होने पर वर्षावास रहते हैं । इस समय से पूर्व भी वर्षावास रहना कल्पता है, परन्तु उस रात्रि को उल्लंघन करना नहीं कल्पता । अर्थात् वर्षाऋतु के बीस रात्रि सहित एक मास की अन्तिम रात्रि को उल्लंघन करना नहीं कल्पता एतदर्थ इस अन्तिम रात्रि के पूर्व ही वर्षावास करना चाहिए । मूल :
वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गथीण वा सव्वओ समंता सकोसं जोयणं उग्गहं ओगिण्हित्ता णं चिहिउ अहालंदमवि उग्गहे ॥२३२॥
अर्थ-वर्षावास रहे हुए निम्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों को सभी ओर पांच कोस तक अवग्रह को स्वीकार कर रहना कल्पता है। पानी से आर्द्र बना हुआ हाथ जब तक न सूखे तब तक भी अवग्रह में रहना कल्पता है, और बहुत समय तक भी अवग्रह में रहना कल्पता है, किन्तु अवग्रह से बाहर रहना नहीं कल्पता।
- भिक्षावरी कल्प
वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गं