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समाचारी : मिक्षाचरीकल्प
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विवेचन - आगम साहित्य में दूध-दही आदि को कही पर विकृति " कहा गया है और कहीं पर 'रस' कहा है। दूध, दही आदि विकार - वृद्धि करते हैं एतदर्थ इनका नाम विकृति है । ग प्रस्तुत सूत्र की तरह स्थानाङ्ग में भी नौ विकृतियों का वर्णन है । स्थानाङ्ग में तेल, घृत, वसा ( चर्बी ) और मक्खन को स्नेह - विकृत भी कहा है च और आगे चलकर मधु, मद्य, मांस और मक्खन को महाविकृति भी कहा है । छ विकृति खाने से मोह का उदय होता है ज एतदर्थ उन्हें बार-बार खाने का निषेध किया गया है । मद्य-मांस ये दो विकृतियाँ और वसा चर्बी ) अभक्ष्य है । कुछ आचार्य मधु और मक्खन को भी अभक्ष्य मानते है और कुछ आचार्य मधु और मक्खन को विशेष परिस्थिति में भक्ष्य भी मानते हैं । जो विकृतियाँ भक्ष्य हैं, उन्हीं विकृतियों को पुनः पुनः खाने का निषेध किया गया है । मद्य और मांस तो श्रमण के लिए सर्वथा त्याज्य है ही, अत: उसके खाने का प्रसंग हो नहीं उठ सकता ।
मूल :
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वासावासं पज्जोसवियाणं अत्थेगतियाणं एवं वुत्तपुव्वं भवइ 'अट्ठो भंते! गिलाणस्स ?' से य वयिज्जा 'अट्ठो' से य पुच्छियव्वे सिया 'केवईएणं अट्ठो !' से य वएज्जा 'एवइएणं अट्ठो गिलाणस्स' । जं से पमाणं वदति से पमाणतो घेत्तव्वे । से य विन्नवेज्जा, से य विन्नवेमाणे लभिज्जा, से य पमाणपत्ते, 'होउ, अलाहि' इति वत्तव्वं सिया । से किमाहु भंते ! एवइएणं अट्ठो गिलाणस्स । सिया णं एवं वयंतं परो वएज्जा 'पडिग्गाहेहि अज्जो ।' तुमं पच्छा भोक्खसि वा देहिसि वा' एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए, नो से कप्पइ गिलाणनीसाए पडिग्गाहित्तए ॥ २३८ ॥
अर्थ - वर्षावास में रहे हुए कितने ही श्रमणों को पूर्व ही इस प्रकार कहा हुआ होता है - 'हे भगवन् ! अस्वस्थ व्यक्ति के लिए आवश्यकता है ? यदि वह