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कल्पस
वासावासं पज्जोसवियाणं अत्थेगईयाणं एवं वृत्तपुव्वं भवइ 'पडिगाहे भंते !' एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए नो से कप्पइ दावित्तए ॥२३॥
अर्थ-वर्षावास में रहे हुए कितने ही श्रमणों को इस प्रकार प्रारम्भ में ही कहा हुआ होता है, "भगवन् ! तू लेना', तो उसको इस प्रकार स्वयं लेना कल्पता है, किन्तु दूसरों को देना नहीं कल्पता ।' मल:
वासावास पज्जोसवियाणं अत्थेगईयाणं एवं वृत्तपुव्वं भवइ 'दावे भंते ! पडिगाहे भंते ! एवं से कप्पइ दावित्तए वि पडिगाहित्तए वि ॥२३६॥
अर्थ-वर्षावास में रहे हुए कितने ही श्रमणो को पूर्व ही इस प्रकार कहा हुआ होता है कि हे भगवन् ! तू, दूसरों को भी देना और स्वयं भी लेना' तो उसको इस प्रकार दूसरों को देना और स्वयं को लेना कल्पता है।" मूल :
वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण का निग्गंथीणं वा हट्ठाणं आरोग्गाणं बलियसरीराणं इमाओ नवरसविगईओ अभिक्खणं अभिक्खणं आहारित्तए, तं जहा-खीरं दहिं नवणीयं सप्पि तिल्लं गुडं महुं मज्जं मंसं ॥२३७॥
अर्थ-वर्षावास में रहे हुए निर्ग्रन्थ और निम्रन्थिनियां हृष्टपुष्ट हों, नीरोग हों, बलवान् देहवाले हों, उनको ये नौ रस-विकृतियों का बार-बार खाना नहीं कल्पता, जैसे- (१) क्षीर-दूध, (२) दही, (३) मक्खन, (४) घृत, (५) तेल, (६) गुड, (७) मधु, (८) मद्य, (६) मांस ।