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स्पविरावली : विभिन्न शाखाएँ : मार्य बलस्वामी
३०७ सिंहगिरि ने शुभ लक्षण देखकर शिष्यों को आदेश दिया कि जो भी भिक्षा में मिले उसे ले लेना । दोनों ही भिक्षा के लिए सुनन्दा के यहाँ पर पहुँचे । सुनन्दा बच्चे से ऊब गई थी। ज्योंही भिक्षा के लिए पात्र आगे रक्खा कि सुनन्दा ने आवेश में आकर बालक को पात्र में डाल दिया, और बोली आप तो चले गये, और इसे छोड़ दिया, रो-रोकर इसने मुझे परेशान कर लिया, इसे भी ले जाइए।' धनगिरि ने समझाने का प्रयास किया, पर वह न समझो। धनगिरि ने छह मास के बालक को ले लिया और लाकर गुरु को सौंप दिया । अति भारी होने के कारण गुरु ने बच्चे का नाम वज्र रख दिया ।१०४ पालन पोषण हेतु वह गृहस्थ को दे दिया गया। श्राविका के साथ वह उपाश्रय जाता। साध्वियों के सम्पर्क में रहने से, और निरन्तर स्वाध्याय सुनने से उसे ग्यारह अंग कंठस्य हो गए।
जब बच्चा तीन वर्ष का हुआ तब उसकी माता ने बच्चे को लेने के लिए राजसभा में विवाद किया। माता ने बालक को अत्यधिक प्रलोभन दिखाए, पर बालक उधर आकृष्ट नहीं हुआ और धनगिरि के पास आकर रजो हरण उठा लिया।
जब बालक की उम्र आठ वर्ष की हुई तब गुरु धनगिरि ने उसे दीक्षा दे दी व वज्रमुनि के नाम से प्रसिद्ध हुए। जृभक देवों ने अवन्ती में आहार शुद्धि की परीक्षा ली, आप पूर्ण खरे उतरे। देवताओं ने लघुवय में ही आपको वक्रियलब्धि और आकाशगामिनी विद्या दे दी। एक बार उत्तर भारत में भयंकर दुभिक्ष पड़ा । उस समय विद्या के बल से आप श्रमण संघ को कलिंग प्रदेश में ले गए थे।
पाटलीपूत्र के इभ्यश्रेष्ठी धनदेव की पुत्री रुक्मिणी आपके अनुपम रूप पर मुग्ध हो गई । धनश्रेष्ठी ने भी पुत्री के साथ करोड़ों की सम्पत्ति दहेज में देने का प्रस्ताव किया, पर तनिक मात्र भी कनक और कान्ता के मोह में उलझे नहीं, किन्तु रुक्मिणी को प्रतिबोध देकर प्रव्रज्या प्रदान की ।
वज्रस्वामी के चमत्कारों की अनेक घटनाएँ जैन साहित्य में उदृङ्कित हैं।