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कल्प-सूत्र
की अवस्था में प्रव्रज्या ग्रहण की। पचास वर्ष की अवस्था में आचार्यपद पर प्रतिष्ठित हुए, और एक सौ पाँच वर्ष की उम्र में अनशन कर स्वर्गवासी हुए ।
आर्य शय्यंभव
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आचार्य प्रभव स्वामी के स्वर्गस्थ होने पर आर्य शय्यंभव उनके पट्ट पर आसीन हुए। ये राजगृह के निवासी वत्स गोत्रीय ब्राह्मण थे । वैदिक साहित्य के उद्भट विद्वान् थे । एक समय वे बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे थे । आर्य प्रभव के आदेशानुसार कुछ शिष्य उनके समीप आए और कहते हुए आगे निकल
गए
'अहो कष्टमहो कष्टं पुनस्तत्वं न ज्ञायते'
"अत्यन्त खेद है कि तत्व को कोई नहीं जानता ।" यह वाक्य शय्यंभव के पाण्डित्य पर एक करारी चोट थी। उन्होने गहराई से सोचा, पर तत्व का रहस्य ज्ञात न हो सका, तब उन्होंने इन्ही मुनियों से पूछा-तत्व क्या है ? बताओ !
शिष्यों ने कहा - तत्व क्या है ? यह तो हमारे गुरु बताएँगे । यदि तत्व की जिज्ञासा हैं तो हमारे गुरु आर्य प्रभव के चरणों में चलो। उसी क्षण शय्यंभव आर्य प्रभव के पास आये । प्रभवस्वामी ने बताया- " यज्ञ करना एक तत्व है, पर वह यज्ञ बाह्य नहीं, आभ्यन्तर होना चाहिए, विकारों के पशुओं को होमना ही यज्ञ का तत्व है ।" प्रभव स्वामी के प्रभावपूर्ण प्रवचन से प्रबुद्ध होकर प्रब्रज्या ग्रहण की। चतुर्दश पूर्व का अध्ययन किया ।
जब इन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण की थी तब पत्नी सगर्भा थी । पश्चात् पुत्र लघुवय में ही चम्पानगरी में
हुआ । 'मनक' नाम रखा गया । 'मनक' ने आपके दर्शन किये, और वह भी मुनि बन गया । विशिष्ट ज्ञान से पुत्र को छह मास का अल्पजीवी समझकर अल्पकाल में ही श्रमणाचार का सम्यक् परिचय देने हेतु पूर्वश्रुत के आधार से आचार संहिता का संकलन किया। उसके दस अध्ययन थे । विकाल में रचा जाने के कारण उसका नाम 'दशवैकालिक' रखा
गया।