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भगवान शिवमदेव : शिष्य-संपदा भ्राताओं के साथ जो व्यवहार किया था उससे वे स्वयं लज्जित थे। भ्राताओं को गंवाकर राज्य प्राप्त कर लेने पर भी उनके मानस को प्रसन्नता नहीं हुई। विराट् राज्य का उपभोग करते हुए भी वे अब उसमें आसक्त नहीं थे । सम्राट होने पर भी वे साम्राज्यवादी वृत्ति के नहीं थे। दीर्घकाल तक राज्यश्री का उपयोग करने के पश्चात् भगवान् श्री ऋषभदेव के मोक्ष पधारने के बाद एक बार भरत वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर आदर्श भवन (काँच के महल) मे गए। अंगुली से अंगठी गिर गई जिससे वह असुन्दर प्रतीत हो रही थी। भरत ने देखा तो अन्य आभूषण भी उतारे, सुन्दरता का रूप बदला देखकर चिन्तन का प्रवाह उमड़ पड़ा । भरत सोचने लगे-"यह सब सौन्दर्य कृत्रिम है, कृत्रिमता सदा क्षण भंगुर होती है। सुन्दरता तो वह है जो अक्षय, अजर, अमर हो, जो किसी अन्य की अपेक्षा से नही, किन्तु स्वयं के रूप में ही सुन्दर हो, वह सौन्दर्य बाहर में नही, भीतर में हैं, आत्मा के भीतर...अनन्त ज्ञान ! अनन्त दर्शन । यही मेरे अक्षय सौन्दर्य का भण्डार है।" इस प्रकार चिन्तन करते हुए कृत्रिममौन्दर्य से आत्म-सौन्दर्य में पहुँच गए। कर्ममल का प्रक्षालन करते-करते केवल ज्ञानी बन गये । इस प्रकार भगवान के सौ ही पुत्रों ने तथा ब्राह्मी सुन्दरी दोनों पुत्रियो ने श्रमणत्व स्वीकार कर कैवल्य प्राप्त किया और मोक्ष गये ।
-. भगवान ऋषभदेव को शिष्य संपदा
___ उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स चउरासीइं गणा चउरासीइं गणहरा होत्था। उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स उसभसेणपामोक्खाओ चउरासीइं समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था । उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स बंभीसुन्दरिपामोक्खाणं अज्जियाणं तिन्नि सयसाहस्सीओ उक्कोसिया
अज्जियासंपया होत्था। उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स सेज्जसपामोक्खाणं समणोवासागाणं तिनि सयसाहस्सीओ पंच सहस्सा उक्कोसिया समणोवासयसंपया होत्था। उसमस्स णं