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भगवान ऋषभदेव : प्रथम धर्म चक्रवर्ती
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की उपासना करनी चाहिए । कहाँ अभय का प्रदाता केवलज्ञान और कहाँ प्राणियों का विनाश करने वाला चक्ररत्न, मुझे प्रथम चत्ररत्न को नही, किन्तु भगवान् की उपासना करनी चाहिए।" ऐसा सोच सम्राट् भरत भगवान् के दर्शन हेतु सपरिजन प्रस्थित हुए ।" "
माँ मरुदेवा भी अपने लाड़ले पुत्र के दर्शन हेतु चिरकाल से छटपटा रही थी । पुत्र के वियोग से वह व्यथित थी । उसके दारुण कष्ट की कल्पना करके वह कलप रही थी । प्रतिपल प्रतिक्षण लाड़ले लाल की स्मृति से उसके नेत्रों से आँसू बरस रहे थे । जब उसने सुना कि ऋषभ विनीता के बाग में आया है, तो वह भरत के साथ ही हस्ती पर आरूढ होकर चल पडी । भरत के विराट् वैभव को देखकर उसने कहा- बेटा भरत एक दिन मेरा प्यारा ऋषभ भी इसी प्रकार राज्यश्री का उपभोग करता था । पर इस समय वह क्षुधा पिपासा से पीड़ित होकर कही कष्टों को सहन करता होगा ? पुत्र प्रेम से आँखें छलछला आई । भरत के द्वारा तीर्थकरों की दिव्य विभूति का शब्द चित्र सुनने पर भी माता के हृदय को संतोष नहीं हो रहा था । समवसरण के सत्रिकट पहुँचने पर ज्योंही भगवान् ऋषभ को इन्द्रों द्वारा अर्चित देखा, त्योंही माता का चिन्तन का प्रवाह बढता गया। आर्तध्यान से शुक्लध्यान में लीन हो गई । ध्यान का उत्कर्ष बढ़ा। मोहकर्म का बन्धन टूटा, फिर ज्ञानावरण, दर्शनाकरण और अन्तराय को नष्ट कर केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त कर लिया । उसी क्षण शेष कर्मो को भी नष्ट कर हस्ती पर आरूढ़ हुई सिद्ध बुद्ध और मुक्त हो गई ।" कितने ही आचार्यों का अभिमत है कि भगवान् के शब्द उनके कानों में गिरने से, उन्हें आत्मज्ञान हुआ और मुक्ति प्राप्त हुई । २
प्रस्तुत अवसर्पिणी काल में सर्व प्रथम केवलज्ञान श्री ऋषभदेव को प्राप्त हुआ और मोक्ष मरुदेवा माता को ।
प्रथम धर्म चक्रवर्ती- भगवान् ऋषभदेव का प्रथम प्रवचन फाल्गुन कृष्णा एकादशी को हुआ । उसे श्रवणकर सम्राट् भरत के पाँच सौ पुत्रो और सात सौ पौत्रों ने, तथा ब्राह्मी आदि ने प्रव्रज्या ग्रहण की । भरत आदि ने श्रावकव्रत ग्रहण किये और सुन्दरी ने भी । इस प्रकार श्रमण, श्रमणी श्रावक,