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वह देवविमान नवोदित सूर्य-बिम्ब के सदृश प्रभा वाला-देदीप्यमान था। उसमें स्वर्ण निर्मित और महामणियों से जटित एक सहस्र अष्ट स्तम्भ थे, जो अपने अलौकिक आलोक से आकाश मण्डल को आलोकित कर रहे थे। उसमें स्वर्ण पत्रों पर जड़े हुए मुक्ताओं के गुच्छे लटक रहे थे। इस कारण उसमें आकाश अधिक चमकीला लग रहा था । दिव्य मालाएँ भी लटक रही थीं। उस विमान पर वृक, वृषभ, अश्व, नर, मकर, विहग, सर्प, किन्नर, रुरुमृग, शरभ, (अष्टापद) चमरीगाय, तथा विशेष प्रकार के जगली पशु, हस्ती, वनलता, पद्मलता, आदि के विविध प्रकार के चित्र चित्रित थे। उसमें गन्धर्व मधुर गीत गा रहे थे, वाद्य बज रहे थे जिससे वह गर्जता हुआ प्रतीत हो रहा था। उसमे देवदुन्दुभि का घोष हो रहा था जिससे वह विपुल मेघ की गम्भीर गर्जना की तरह सम्पूर्ण देवलोक को शब्दायमान करता हुआ-सा लगता था। कालागरु, श्रेष्ठकुन्दरुक, तुरुष्क (लोमान) तथा जलती हुई धूप से वह महक रहा था और मनोहर लग रहा था । उस विमान में नित्य प्रकाश रहता था, वह श्वेत और उज्ज्वल प्रभा वाला था। देवों से सुशोभित सुखोपभोग रूप श्रेष्ठ पुण्डरीक के सदृश विमान को माता त्रिशला देखती है ।१५३ मल:- तओ पुणो पुलगवेरिंदनीलसासगकक यणलोहियक्खमरगयमसारगल्लपवालफलिहसोगंधियहंसगब्भअंजणचंदप्पभवररयणमहियलपइट्ठियं गगणमंडलं तं पभासयंत तुगं मेरुगिरिसन्निगासं पिच्छइ सा रयणनियररासिं। १३ ॥४६॥
अर्थ-उसके पश्चात् त्रिशलामाता ने स्वप्न में रत्नराशि देखी। वह रत्नराशि भूमि पर रखी हुई थी, पर उसकी चमक-दमक गगन मण्डल के अन्तिम छोर तक परिव्याप्त थी, उसमें पुलक, वज्र, इन्द्रनील, सासक, कर्केतन, लोहिताक्ष, मरकत, मसारगल्ल, प्रवाल, स्फटिक, सौगन्धिक, हंसगर्भ, अंजन, चन्द्रप्रभ, प्रभृति श्रेष्ठ रत्न प्रभास्वर हो रहे थे। वह रत्नों का समूह मेरुपर्वत, के समान उच्च प्रतीत हो रहा था। ऐसी रत्न राशि माता ने स्वप्न में देखी।