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कल्पसूत्र
अर्थ - उसके पश्चात् भगवान् अर्हत् हुए, जिन केवली, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हुए । अब भगवान् देव मानव और असुर सहित लोक में सम्पूर्ण पर्याय जानते हैं, देखते हैं । सम्पूर्ण लोक में सभी जीवों के आगमन, गमन, स्थिति, च्यवन, उपघात, उनका मानसिक संकल्प, भोजन, प्रभृति सभी श्रेष्ठ और कनिष्ठ प्रवृत्तियाँ, चाहे वे ( आवीकम्म) प्रकट हैं, या ( रहोकम्म) अप्रकट हैंउन्हें भगवान् जानते है । भगवान् अर्हत् हुए अतः उनसे अब कोई भी रहस्य छिपा हुआ नहीं है, अरहस्य के भागी हुए उनके समीप करोड़ों देव सेवा में संलग्न रहने के कारण अब एकान्त में रहने की स्थिति नहीं रही । इस प्रकार अर्हत् हुए, भगवान् उस काल में मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों में रहते हुए समग्र लोक के, समस्त जीवों के, सम्पूर्ण भावों को जानते हुए, देखते हुए विचरते हैं ।
विवेचन - मध्यम पावा से प्रस्थान कर भगवान् जंभियग्राम के निकट ऋजुबालिका सरिता के उत्तर तट पर साधना में लीन हुए । साधना में बारह वर्ष पूर्ण हो चुके थे । तेरहवाँ वर्ष चल रहा था । ३२२ वैशाख मास था, शुक्ला दशमी के दिन का अन्तिम प्रहर था । भगवान् सघन शालवृक्ष के नीचे गोदोहिका आसन से आतापना ले रहे थे । आत्म मंथन चरम सीमा पर पहुँच रहा था, आत्मा पर से घनघाति कर्मों का आवरण हटा। साधना सफल हुई, केवलज्ञान, केवलदर्शन प्रकट हुआ । भगवान् अब जिन और अरिहन्त बन गये ! सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो गये ।
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ऐसा एक शाश्वत नियम है कि जिस स्थान पर केवलज्ञान की उपलब्धि होती है वहां पर तीर्थंकर एक मुहूर्त तक ठहरते हैं । भगवान् भी एक मुहूर्त तक वहाँ ठहरे । २३
भगवान् को केवलज्ञान उत्पन्न होते ही देवगण आए, समवसरण की रचना की । पर, देवता सर्वविरति के योग्य न होने के कारण भगवान् ने एक क्षण ही उपदेश दिया । वहां पर मनुष्य की उपस्थिति नहीं थी, अतः किसी ने भी विरतिरूप धर्म चारित्र-धर्म स्वीकार नहीं किया। इस प्रकार की घटना जैना गमों में एक आश्चर्य के रूप में उट्टङ्कित की गई है।