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कल्प सूत्र (८) सुवर्णबाहु चक्रवर्ती-मध्यम ग्रंवेयक से आयु पूर्णकर मरुभूति का जीव जम्बूद्वीप के पूर्व महाविदेह में शुभकर विजय के पुराणपुर में कुशलबाहु राजा की सुदर्शना रानी का पुत्र सुवर्णबाहु चक्रवर्ती बना । षट्खण्ड के राज्य का उपभोग करने के पश्चात् संयम ग्रहण किया, और उग्र तपः साधना की। तीर्थंकर नामगोत्रोपार्जन के योग्य बीस स्थानको का सेवन किया। एक बार निर्जन वन में कायोत्सर्ग करके खड़े थे । कमठ का जीव सातवें नरक से निकल कर इसी अरण्य में सिह बना था। उसने ध्यानस्थ मुनि को देखा। पूर्व वैर उद्बुद्ध हुआ। मुनि पर झपटा । मुनि ने उस पीड़ा को समभाव पूर्वकर सहन कर अत्यन्त शुद्ध परिणामों के साथ आयु पूर्ण किया।
(९) दसर्वे देवलोक में-मुनि, जो मरुभूति का जीव था, वहाँ से आयुपूर्ण कर दसवें देवलोक में बीस सागर की आयु वाला देव बना। कमठ का जीव, जो सिंह था, मरकर नरक में गया ।
(१०) पार्श्वनाथ-मरुभूति का जीव दसवें देवलोक से च्यवकर वाराणसी नगरी में अश्वसेन राजा की रानी वामादेवी की कुक्षि मे भगवान् पार्श्वनाथ के रूप में अवतरित हुआ। ---. जन्म मूल :
पासे णं अरहा पुरिसादाणीए तिण्णाणोवगए यावि होत्थाचइस्सामि त्ति जाणइ. चयमाणे न जाणइ, चुए मि त्ति जाणइ, तेणं चेव अभिलावेणं सुविणदंसणविहाणेणं सव्वं जाव निययं गिहं अणुप्पविट्ठा जाव सुहं सुहेणं तं गम्भं परिवहइ ॥१५०॥
अर्थ-पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व तीन ज्ञान से युक्त थे। 'मैं यहाँ से च्युत होऊंगा' यह जानते थे ! च्युत होते हुए नही जानते थे, और 'च्युत हो गया' हूं' यह जानते थे। यहां से लेकर भगवान महावीर के प्रकरण में स्वप्न से सम्बन्धित सारा वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए । यावत् माता अपने गृह में प्रवेश करती है और सुखपूर्वक गर्भ को धारण करती है।