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पुरुषावामीय महत् पार्श्वनाथ : दोमा
२१६ सन्न स्थिति में था। पार्श्वनाथ ने उसे नवकार मंत्र सुनाया। वह समाधिपूर्वक मर कर धरणेन्द्र (नागकुमार जाति के देवों का इन्द्र) देव हुआ। लोगों ने कमठ की भर्त्सना की, वे उसे धिक्कारने लगे। तापस पाश्र्बकुमार पर बहुत रुष्ट हुआ। पर करता भी क्या ? आखिर में अज्ञान-तप के कारण कमठ तापस वहाँ से मरकर मेघमाली नामक देव बना।
भावी तीर्थंकरों द्वारा गृहस्थावास में इस प्रकार धर्म क्रान्ति का यह अद्वितीय उदाहरण है। मूल :
पासे णं अरहा पुरिसादाणीए दक्खे दक्खपइण्णे पडिरूचे अल्लीणे भद्दए विणीए तीसं वासाई अगारवासमझे वसित्ता णं पुणरवि लोयंतिएहिं जियकप्पिएहिं देवेहिं ताहिं इटाहिं जाव एवं वयासी-जय जय नंदा जय जय भद्दा, भदं ते जाव जय जय मई पउंजंति ॥१५२॥
__ अर्थ-पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व दक्ष थे, दक्ष प्रतिज्ञा वाले थे, उत्तम रूप वाले, सर्व गुणो से युक्त भद्र व विनीत थे। वे तीस वर्ष तक गृहवास मे रहे । उसके पश्चात् अपनी परम्परा का पालन करते हुए लोकांतिक देवों ने आकर के इष्टवाणी के द्वारा इस प्रकार कहा-"हे नन्द ! (आनन्दकारो) तुम्हारी जय हो, विजय हो! हे भद्र ! तुम्हारी जय हो, विजय हो ! यावत् इस प्रकार जय-जय शब्द का प्रयोग करते हैं। --. दीक्षा मूल :
पुबि पि णं पासस्स अरहओ पुरिसादाणियस्स माणुस्सगाओ गिहत्थधम्माओ अणुत्तरे आहोहियए तं चैव सब्वं जाव दायं दाइयाणं परिभाएत्ता जे से हेमंताणं दोच्चे मासे तच्चे पक्खे पोस