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भगवान ऋषभदेव : पूर्वभव
से कृमियां बाहर निकलने लगीं। तो शीतवीर्य रत्न कम्बल से उनके शरीर को आच्छादित कर दिया गया, जिससे वे कृमियाँ रत्न - कम्बल में आ गई । उसके पश्चात् रत्न-कम्बल की कृमियों को गो-चर्म में रख दिया। पुनः मर्दन किया, तो मांसस्थ कृमियाँ निकल गईं, तृतीय बार के मर्दन से अस्थिगत कृमियाँ निकल गई । उसके पश्चात् गोशीर्ष चन्दन का लेप किया, जिससे मुनि पूर्ण स्वस्थ हो गये। छहों मित्र मुनि की स्वस्थता देखकर बहुत प्रमुदित हुए ।
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छहों मित्रों को संसार से विरक्ति हुई। उन्होंने दीक्षा ग्रहणकर उत्कृष्ट तपः साधना की ।
(१०) बारहवें देवलोक में - वहाँ से आयु पूर्णकर बारहवें अच्युत देव लोक में वे उत्पन्न हुए ।
(११) वष्त्रनाभ - जीवानंद का जीव वहाँ से आयु समाप्त होने पर पुष्कलावती विजय की पुण्डरीकिणी नगरी के अधिपति वज्रसेन राजा की धारिणी रानी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ । उत्पन्न होते ही माता ने चौदह महास्वप्न देखे | जन्म होने पर पुत्र का नाम वज्रनाभ रखा गया। पूर्व के पांचों साथियों में से चार तो क्रमशः बाहु, सुबाहू, पीठ, महापीठ, उनके भ्राता हुए और एक उनका सारथी हुआ ।
वज्रनाभ को राज्य देकर वज्यसेन ने संयम ग्रहण किया और उत्कृष्ट सयम साधना कर कैवल्य प्राप्त किया । वह तीर्थकर बने । सम्राट् वज्रनाभ ने भी चक्र रत्न उत्पन्न होने पर षट्खण्ड को विजय कर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया । दीर्घकाल तक षट्खण्ड का राज्य किया और अन्त में पिता वज्रसेन के उपदेशप्रद प्रवचन सुनकर विरक्ति हुई । वज्रनाभ भी अपने प्रिय भ्राताओं और सारथी के साथ प्रव्रजित हुआ । आगमों का गम्भीर चिन्तन मनन किया, उत्कृष्ट तप की साधना की, अनेक चामत्कारिक लब्धियाँ प्राप्त हुई । तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया। अन्त में मासिक संलेखना पूर्वक पादपोपगमन संथारा कर समाधिपूर्वक आयु पूर्ण किया ।
यहाँ पर स्मरण रखना चाहिए कि वज्रनाभ के शेष चारों लघु