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अल्प भ्राताओं ने एकादश अंगों का अध्ययन किया। उनमे से बाहमुनि मुनियों की वयावृत्य करता, और सुबाहुमुनि परिश्रान्त मुनियों को विश्रामणा देता, अर्थात् थके हुए मुनियों के अवयवों के मर्दन आदि रूप अन्तरंग मेवा करता। दोनों को सेवा-भक्ति को निहारकर वज्रनाभ अत्यधिक प्रसन्न हुए और उनकी प्रशसा करते हुए कहा-तुमने सेवा और विश्रामणा के द्वारा अपने जीवन को सफल किया है।
___ ज्येष्ठ भ्राता के द्वारा अपने मझले भ्राताओं की प्रशंसा सुनकर पीठ, महापीठ मुनि के अन्तर्मानस में ये विचार उत्पन्न हुए कि हम स्वाध्याय आदि मे तन्मय रहते हैं, हमारी कोई प्रशंसा नहीं करता, पर वैयावृत्य करने वालों की प्रशंसा होती है । इस प्रकार मन में ईष्या उत्पन्न हुई। उस ईा-बुद्धि से व माया की तीव्रता से मिथ्यात्व आया और स्त्री वेद का बन्धन हुआ । कृतदोष की आलोचना नही की । यदि नि शल्य होकर आलोचना करते तो जीवन अवश्य ही विशुद्ध बनता।'
(१२) सर्वार्थसिद्ध में-वहाँ से आयु पूर्णकर वज्रनाभ आदि पाँचो भाई सर्वार्थसिद्ध विमान मे उत्पन्न हुए । वहा तेतीम सागरोपम तक सुख के सागर में निमग्न रहे।
(१३) ऋषभदेव-वहाँ से सर्वप्रथम आयु पूर्णकर वज्रनाभ का जीव, भगवान् ऋषभदेव हुआ। बाहुमुनि का जीव वैयावृत्य के प्रभाव से श्री ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती के रूप में जन्मा, सुबाहुमुनि का जीव मुनियों को विश्रामणा देने से विशिष्ट बाहुबल का अधिपति ऋषभदेव का पुत्र बाहुबली हुआ। पीठ, महापीठ मुनि के जीव कृत-दोषों की आलोचना न करने से ऋषभदेव की पुत्रियाँ ब्राह्मी और सुन्दरी हुई। और सारथी का जीव श्रेयांसकुमार हुआ। मूल :
उसभे अरहा कोसलिए तिन्नाणोवगए होत्था तं जहाचहस्सामि त्ति जाणइ जाव सुमिणे पासइ, तं जहा-गय उसह०