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कल्पसूत्र
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वासाणं पढमे मासे दोच्चे पक्खे सावणसुद्धे तस्स णं सावणसुद्धस्स पंचमीपक्खेणं नवण्हं मासाणं जाव चित्ताहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं अरोगा अरोगं पयाया । जम्मणं समुद्दविजयाभिवेणं नेतव्वं जाव तं होउ णं कुमारे अरिद्वनेमी नामेणं ।। १६३ ।।
अर्थ - उस काल उस समय वर्षाऋतु का प्रथम मास, द्वितीय पक्ष अर्थात् श्रावण मास का शुक्ल पक्ष आया, उस समय श्रावण शुक्ला पचमी के दिन नौ मास और साढ़े सात दिन परिपूर्ण हुए, यावत् मध्यरात्रि को चित्रा नक्षत्र का योग होते ही, आरोग्य-युक्त (स्वस्थ ) माता ने आरोग्य पूर्वक अर्हत् अरिष्ट नेमि को जन्म दिया | जन्म का इतिवृत्त 'पिता समुद्रविजय' इस पाठ के साथ पूर्ववत् समझना चाहिए, यावत् इस कुमार का नाम अरिष्टनेमि कुमार हो इत्यादि सभी कह लेना चाहिए ।
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विवेचन- अर्हत् अरिष्टनेमि बाईसवें तीर्थकर थे। उनके पिता का नाम समुद्र विजय और माता का नाम शिवा था । उनके तीन भ्राता और थे जिनके नाम इस प्रकार हैं- रथनेमि, सत्यनेमि और दृढ़नेमि र उनका गोत्र गौतम था और कुल वृष्णि था, उनका शरीर श्यामवर्ण था । किन्तु मुखाकृति अत्यधिक मनमोहक थी। वे एक हजार आठ शुभ लक्षणों के धारक थे, "वज्र ऋषभ नाराचसंहनन और समचतुरस्र संस्थान वाले थे । मत्स्य के आकार का उनका उदर था, वे अतुल बली थे । उनके पराक्रम दर्शन का एक मधुर प्रसग है ।
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पराक्रम दर्शन
एक बार घूमते-घामते अर्हत् अरिष्टनेमि श्रीकृष्ण की आयुधशाला में पहुँचे । स्नेही साथियों की प्रेरणा से प्रेरित हो वासुदेव श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र को अंगुली पर रखकर कुम्भकार के चक्र के समान फिरा दिया। शारंग धनुष को कमल की नाल की तरह मोड़ दिया। कौमुदी गदा सहज रूप से उठाकर स्कंध पर रख ली और पाँचजन्य शंख को इस प्रकार बजाया कि सारी द्वारिका भय से काँप उठी । उस ध्वनि को सुनकर श्रीकृष्ण का हृदय भी धड़कने लगा ।' शत्रु के भय से भयभीत बने श्रीकृष्ण आयुधशाला में आये । अरिष्टनेमि द्वारा
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