________________
་ ་་
-
राजीमती ने देखा - रथनेमि का मनोबल टूट गया है। वे वासनाविह्वल होकर संयम से भ्रष्ट हो रहे हैं। उसने धैर्य के साथ कहा - भले ही तुम रूप में वैश्रमण के सदृश हो, भोग-लीला मे नल-कुबेर या साक्षात् इन्द्र के समान हो, तो भी मैं तुम्हारी इच्छा नही करती । " अगंधनकुल में उत्पन्न हुए सर्प प्रज्वलित अग्नि में जलकर मरना पसंद करते हैं, किन्तु वमन किये हुए विष को पुन: पीने की इच्छा नहीं करते । हे कामी ! वमन की हुई वस्तु को खाकर तू जीवित रहना चाहता है। इससे तो मरना श्रेयस्कर है । ३२ साध्वी राजीमती के सुभाषित वचन सुनकर जैसे हम्ती अकुश से वश में आता है वैसे ही रथनेमि का मन स्थिर हो गया ।
रथनेमि ने भगवान के पास जाकर आलोचना की । वे उत्कृष्ट तप तपकर मोक्ष गये ।
राजीमती चार सौ वर्ष तक गृहस्थाश्रम में रही, एक वर्ष छद्मावस्था में रही और पॉचसौ वर्ष केवली पर्याय में रहकर मुक्त हुई । शिष्य-संपदा
२३६
मूल :
अरहओ णं अरिट्ठनेमिस्स अट्ठारस गणा गणहरा होत्था । अरहओ णं अरिष्टनेमिस्स वरदत्तपामोक्खाओ अट्ठारस समणसाहसीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था । अरहओ णं अरिनेमिम्स अज्जजक्खिणिपामोक्रवाओ चत्तालीसं अज्जियासाहसीओ उक्कोसिया अज्जिया संपया होत्था । अरहओ अरिट्ठनेमिस्स नंदपा मोक्खाणं समणोवासगाणं एगा रायसाहस्मी अउणत्तरि च सहस्मा उक्कोसिया समणोवासग संपया होत्था । अरहओ अरिष्टनेमिस्स अरिट्ठनेमिस्स महासुव्वयापामोक्खाणं तिन्नि सयसाहस्सीओ छत्तीसं च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासियाणं संपया होत्था । अरहओ अरिट्ठनेमिस्स चत्तारि सया चोहसपुव्वीणं