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कल्पसूत्र
एक दिन एकान्त में राजीमती को देख, रथनेमि ने अपने हृदय की इच्छा अभिव्यक्त की । राजीमती ने जब वह बात सुनी तो सारा रहस्य समझ गई। दूसरे दिन जब रथनेमि आया तब उसे समझाने के लिए उसने सुगंधित पय-पान किया, और उसके पश्चात् वमन की दवा ( मदनफल ) ली । जब दवा के प्रभाव से वमन हुआ तो उसे एक स्वर्णपात्र में ग्रहण कर लिया, और रथ नेमि से बोली - 'जरा इसका पान करिये ।'
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रथनेमि ने नाक भौं सिकोड़ते हुए कहा- 'क्या मैं श्वान हैं, जो इसका पान करू ?' वमन का पान तो श्वान करता है, इन्सान नहीं ।'
राजमती ने कहा- "बहुत अच्छा ! तो मैं भी अरिष्टनेमि के द्वारा वमन की हुई हैं, फिर मुझ पर मुग्ध होकर मेरी इच्छा क्यों कर रहे हो ? तुम्हारा विवेक क्यों नष्ट हो गया है ? क्या यह भी वमनपान नही है
"
राजीमती की फटकार से रथनेमि लज्जित होकर नीचा शिर किये अपने घर को चला आया । २७
भगवान् के केवलज्ञान की सूचना प्राप्त होते ही श्रीकृष्ण आदि पहुचे । भगवान् के उपदेश से वरदत्त आदि दो हजार राजाओं ने प्रवज्या ग्रहण की । प्रभु ने चतुर्विध संघ की स्थापना की ।
श्री कृष्ण ने भगवान् से जिज्ञासा प्रस्तुत की कि भगवन्! राजीमती का आप पर इतना अपार स्नेह क्यों है ?
समाधान करते हुई भगवान् ने कहा- आज से नौवें भाव में मैं 'धन' नामक राजपुत्र था ओर यह राजीमती का जीव धनवती नाम की मेरी पत्नी थी । वहाँ से मैं प्रथम देवलोक में देव बना और यह देवी बनी। वहां से च्युत होकर मेरा जीव चित्रगति नामक विद्याधर हुआ, और यह मेरी रत्नवती नामक पत्नी हुई । वहाँ से हम दोनों चतुर्थदेव लोक में उत्पन्न हुए। वहाँ से च्युत होकर मैं अपराजित नामक राजा हुआ, और यह प्रियतमा नामक रानी हुई । वहाँ से हम दोनों ग्यारहवें देवलोक देव हुए, । तत्पश्चात् मैं शंख नामक
में
राजा हुआ, और यह यशोमती नामक रानी हुई। वहीं से हम दोनों अपराजित